________________
स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
षाच्यम् ;
कोलाहले कत्वादिवारणाय दोषाभावानां कत्वादिप्रत्यक्षे हेतुत्वमपेक्ष्योक्तसंबन्धेन कत्वादेर्विजातीयनिमित्तपवनसंयोगजन्यतावच्छेदकत्वस्यैवौचित्यात् निमित्तपवना -ऽऽकाशादेः समवायेन शब्दत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वापेक्षया कण्ठाद्यभिघातस्य निमित्तपवन संयोगोपक्षीणत्वात् तस्यैवोक्तसंबन्धेन शवत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् तावतेव कोलाहलमस्यक्षस्य सुष्टत्वात् । न चैवमुच्चार्यमा णयावद्वर्णविषयत्वाऽनियमे तत्कृत कोलाहलतारतम्यप्रत्ययानुपपत्तिः, व्यञ्जकतारतम्यस्यैव तत्रारोपात् । अस्तु वा स्वाश्रयविषयितया कत्वादिकं तथा, अनन्त शब्दोत्पत्ति - नाशादिकल्पनातो लघुत्वात् शुकादिककाराचैव वा विषयितया तथा तदीयश्रावणसम (वा) य-सदीय श्रावणविशेषणत्वयोस्तदीयसमवेत प्रत्यक्षसमवेतनिष्ठाभावप्रत्यक्षयोः कारणत्वाच्च न शब्दत्वादिप्रत्यक्षातिप्रस इति दिग् ॥ ५ ॥
7
[ २७
उक्त अभिघात का जन्यतावच्छेदक मानने से इस पक्ष में गौरव नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि कोहल में कत्वादि रूप से ककारादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति के वारणार्थ कम्यादि प्रकारक प्रत्यक्ष में दोषाभावको कारण मानने की अपेक्षा उक्तसम्बन्ध-लौकिक विषयता सम्बन्ध से कत्वादि को ही परमतानुसार ककारादि के निमित्तभूत विजातीयसंयोग का जन्यताबच्छेदक मानना ही उचित है ।
एवं शब्दस्व को निमित एवन तथा आकाश आदि समवाय सम्बन्ध से जन्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा लौकिक विषयिता सम्बन्ध से शब्दत्व को विजातीय पवन संयोग का जन्यता बच्छेदक मानना उचित है। कण्ठादि का अभिघात निमित्तभूतपवन के विजातीय संयोग से अभिभूत हो जाता है इसलिये कोलाहल में कत्वादिमकारक प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि कत्वादि प्रकारक प्रत्यक्ष में कण्ठावि अभियान प्रयोजक होता है, किन्तु शब्दस्वरूप से कोलाहल का प्रत्यक्ष उपपन्न हो सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष केवल शब्दत्वनकारक होता है और लौकिक विषयिता सम्बन्ध से निमितभूत पवन के विजातीय संयोग का ही जन्यतावच्छेदक होता है । शब्दत्वप्रकारक प्रत्यक्ष में कण्डादिअभिघात प्रयोजक नहीं होता । इसप्रकार स्पष्ट है कि कोणद्दल प्रत्यक्ष स्थल में भी शब्दानित्यत्व पक्ष की अपेक्षा शब्द नित्यत्व पक्ष में लाघव है क्योंकि शब्दानित्यत्वपक्ष में कोलाहल स्थल में शब्दावच्छिन्न की उत्पत्ति और शब्दत्वप्रकारक कोलाहल प्रत्यक्ष की उत्पत्ति माननी होती है किन्तु शब्दनित्यत्यपक्ष में शब्दस्यावच्छिन्न की उत्पत्ति नहीं माननी पडती है। केवल शब्दत्वरूप से कोलाहल प्रत्यक्ष की ही उत्पत्ति माननी होती है ।
[ कोलाहल में तरतमताप्रतीति की अनुपपत्ति का परिहार ]
यदि यह कहा जाय कि - "कोलाहल प्रत्यक्ष को यदि उच्चार्यमाण समस्तवर्णविश्यक न माना जायगा तो वर्णेप्रत्यक्ष द्वारा कोलाहल में तारतम्यप्रतीति की उपपत्ति न होगी । आशय यह है कि कोलाहल मात्र का एकरूप से ही प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु अमुक स्थान में कोलाहल हो रहा है, अब पहले से अधिक कोलाहल है और अब बहुत बडा कोलाहल है।' इस प्रकार लघु-ह-बृहत्तर रूप में कोलाहल का प्रत्यक्ष होता है। यह प्रत्यक्ष तभी उपपन्न हो सकता है जब कोलाहल के प्रत्यक्ष को उच्चार्यमाण समस्त वर्णविवयक माना जाय, दबु कोलाहल का प्रत्यक्ष जितने वर्णों को विषय करेगा बृहत प्रत्यक्ष उससे अधिक वर्णों को विषय करेगा और बृहत्तरप्रत्यक्ष उस से भी अधिक वर्णों को विषय करेगा। यह इसलिए होता है कि जब कम