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[शाखा० १०५ लोग पक साथ बोलते हैं तब लघु कोलाहल होता है और जब पहले से अधिक लोग बोलने लगते हैं तब बृहत् कोलाहल होता है और जब उस से भी अधिक लोग बोलने लगते हैं तब वृहत्तर कोलाहल होता है। किन्तु विनित्यत्वपक्ष में वर्ण की उत्पत्ति न होने से पत्र केवल शब्दत्वरूप से ही कोलाहल का प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उक्त तारतभ्यप्रतीति की उपपनि अशक्य है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कोलाहन में विजातीय पधनसंयोगरूप व्यञ्जकों में न्यूनाधिक्यरूप तारतम्य होता है उस तारतम्य का ही कोलाहल में आरोप मानने से विभिन्न रूप से कोलाहल प्रत्यक्ष की उपपति शम्दनित्यत्वपक्ष में भी हो सकती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शब्दनित्यत्वपक्ष में भी कोलाहल के समय ककार आदि वर्गों का प्रत्यक्ष होता है अत एत्र वर्णी के न्यूनाधिक्य के अनुसार कोलाहल में तारतम्य की प्रतीनि हो सकती है। यह बात स्वाप्रयनिरूपित लौकिकविषयिता सम्बन्ध से कत्वादि को विजातीय पवनमयोग का जन्यताबन्दक मानने से उपपन्न हो सकती है। अतः अनन्त शब्दों की उत्पसि एवं नाश आदि की कल्पना जो शब्दानित्यत्व पक्ष में होती है, शब्यनित्यत्वपक्ष में उस कल्पना न होने से लावध सुस्पष्ट है।
[विषयिता सम्बन्ध से शुकादि का कादिवर्ण जन्यतावच्छेदक] अथवा यह भी कहा जा सकता है कि शुकादि का ककार आदि ही लौकिकवियिता सम्बन्ध से विजातीयपवनसंयोग का जन्यतावच्छेदक है, ऐसा मानने पर भी शब्दनित्यत्वपक्ष में कोई गौरव नहीं हो सकता क्योंकि शब्दनित्यस्थपक्ष में ककारादि वर्ण एक ही है। शुकादि के ककारादिप्रत्यक्ष में मनुष्य आदि के ककार आदि प्रत्यक्ष की अपेक्षा जो विलक्षणता है, और मनुष्यों में भी एक के ककारादि प्रत्यक्ष में अन्य के ककारादिप्रत्यक्ष की अपेक्षा (सभी प्रत्यक्षों में एक ही ककार व्यक्ति का भान होने पर भी) जो विलक्षणता प्रतीत होती है वह व्यञ्जकों की विलक्षणता से होती है। कोलाहल में ककारादि वर्गों का स्वरूपतः प्रत्यक्ष होता है उन में कत्व, शरदत्व आदि किसी धर्म का विशेषणकप में भान नहीं होता, कोलाहल के समय सुने जाते धर्गों में क्रत्व शम्वत्वादि का प्रत्यक्ष अथवा पक वर्ण में अन्य वर्ण के भेद का अथवा अन्य वर्ण के धर्माभाव का प्रत्यक्ष इसलिए नहीं होता कि उस समय उन प्रत्यक्षों का कारण विधमान नहीं होता।
तत्पुरुष को होनेवाले शब्दात्मक समवेत के श्रावणप्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रावणप्रत्यक्षविषय का समवाय कारण है। पर्व तत्पुरुष को होनेवाले शब्दनिष्ठ अभाव के श्रावण प्रत्यक्ष में तत्पुरुष के श्रायणप्रत्यक्षविषय की विशेषणता कारण है। (यह अर्थ प्रसङ्ग के अनुरोध से 'प्रत्यक्ष' शब्द को श्रावणप्रत्यक्षपरक और 'समवेतनिष्ठाभाव' पद में 'समवेत' शब्द को शब्दार्थक मानने पर लब्ध होता है। इस कार्यकारणभाष की कल्पना के फलस्वरूप ककार आदि का अषण न होने की दशा में ककार आदि में शब्दत्व के श्रावण प्रत्यक्ष की तथा खकारादिभेद के श्रावणप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार हो जाता है, क्योंकि ककार आदि का श्रवण न होने पर शब्दत्व आदि में तत्पुरुषीय श्रावणप्रत्यक्ष के विश्य का समयाय न रहेगा एवं खकारादिभेद में उस की विशेषणता न रहेगी क्योंकि उक्त कारण की कुक्षि में श्रावणत्व और श्रायणप्रत्यक्षविषयत्व विशेषणरूप से प्रविष्ट है।
शुक आदि द्वारा व्यक्त किये जानेवाले ककार आदि को विषयिता सम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग का जन्यतावच्छेदक मानने पर ककार मादि के प्रत्यक्ष में विजातीयसंयोगजन्यता