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________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ३०९ सन्तः सिद्धाः पुंलिङ्गसिद्धाः । एवं (१०) नपुंसकशरीरे व्यवस्थिताः सन्तः सिद्धा नपुंसकलिङ्गसिद्धाः । तथा (११) स्वलिङ्गे रजोहरणादिरूपं व्यवस्थिताः सन्त सिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धाः । (१२) अन्यलिने परिव्राजकादिसंबन्धिन्येय व्यवस्थिताः सिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धाः । (१३) गृहिलिने व्यवस्थिताः सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेव्यादयः (१४) एकस्मिन् समय एकका एव सन्तः सिद्धा एकसिद्धाः | (१५) एकस्मिन् समयेऽनेकैः सह सिद्धा अनेकसिद्धाः । अत्राचक्षते क्षपणका अभिनिवेशपेशल चित्ताः – 'स्त्रीलिङ्गसिद्धा:' इत्यत्र 'पूर्व क्षीणस्त्रीवेदाः सन्तः सिद्धाः' इत्ययमर्थ आश्रयणीयः, लिङ्गपदेन मोक्षाननस्यापि वेदस्यानोपादानात्, तीर्थकर सिद्धादाविव मोक्षाङ्गोपाध्युपादाने नियमाभावात् स्त्रीशरीरावस्थितास्तु न मुक्तिभाजः स्त्रीत्वात्, व्यतिरेके पुरुषवत् । अथवा, स्त्रियो मोक्षभाजो न भवन्ति विशिष्टपूर्वाध्ययनलब्ध्यभाववत्वात्, अभयवत् इति । ते भ्रान्ताः, लिङ्गपदेन वेदोपादानेऽप्युक्तार्थस्य स्त्रीमुक्ति विनाऽनुपपत्तेः पूर्वं स्त्रीवेदादिक्षयस्य शरीरनिर्वृतिनियम नियतत्वात् । तथाहि - यदि पुरुषः प्रारम्भकस्तदा पूर्वं नपुंसक वेदम्, वेद और परिधान नहीं । (९) पुरुषशरीर में विद्यमान होकर जो सिद्ध होते हैं, उन्हें पुरुषलिङ्ग सिद्ध कहा जाता है । (१०) नपुंसक शरीर में विद्यमान होकर जो सिद्ध होते हैं, उन्हें नपुंसक लिङ्गसिद्ध कहा जाता है। (११) जो रजोहरण आदि अपने जैन धर्मोक्त साधु) लिङ्ग में रहते हुप सिद्ध होते हैं उन्हें स्वलिङ्गसि कहा जाता है। (१२) जो परिवाजक आदि से सम्बन्धी ( अन्य अजैन धर्मति) लिङ्ग में रहते हुए दिए होते हैं वे अम्ल होत । (१३) जो गृहिरूपलिङ्ग में रहते हुए सिद्ध होते हैं उन्हें गृहिलिङ्गसिद्ध कहा जाता है जैसे मरुदेषी आदि । (१४) जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं उन्हें एकसिद्ध कहा जाता है । और (१५) जो एक समय में अनेकों के साथ सिद्ध होते हैं उन्हें अनेक सिद्ध कहा जाता है । [ स्त्री मुक्तिवादचर्चा में दिगम्बर- पूर्वपक्ष ] इस प्रसङ्ग में अभिनिविष्ट चित्तवाले क्षपणकों दिगम्बरों का यह कहना है कि श्रीलिङ्ग सिद्ध का यह अर्थ है कि जो सर्वप्रथम स्त्रीवेद के क्षीण हो जाने पर सिद्ध होते हैं वे खीलिङ्ग सिद्ध है क्योंकि स्त्रीलिङ्ग शब्द में लिङ्गपद से मोक्ष का अनङ्ग होने पर भी वेद का ग्रहण अभिमत है, क्योंकि अतीर्थंकरसिद्ध आदि के समान बोलिङ्गसिद्ध में भी 'मोक्ष के अङ्गभूत उपाधि का ही ग्रहण होने का नियम' नहीं है। अपने अभिमत की सिद्धि के लिये क्षपणकों का इस प्रकार अनुमान प्रयोग होता है कि 'जो श्री शरीर में अवस्थित होते हैं ये स्त्री होने के कारण मोक्ष के अधिकारी नहीं होते, जो मोक्ष के अधिकारी होते हैं ये स्त्री नहीं होते, जैसे पुरुष अथवा यह भी एक अनुमान उनके द्वारा प्रस्तुत होता है जैसे- 'स्त्रीयां मोक्ष की अधिकारिणी नहीं होती, क्योंकि वे 'पूर्व' के अध्ययन की लब्धिरूप विशिष्ट योग्यता से शून्य होती हैं, जैसे अभव्यजीव । ' [ दिगम्बर की भ्रान्ति का सूचन ] _sureurore कहते हैं कि उक्त पक्ष को प्रस्तुत करनेवाले क्षपणक-दिगम्बर अन्त है, क्योंकि बीलिङ्ग शब्द में लिङ्ग पद से खेद का उपादान करने पर भी श्री मुक्ति माने विना
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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