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दा-पाना.
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ततः स्त्रीवेदम्, ततो हास्यादिपदकं क्षपयति, ततः पुरुषवेदं खण्डत्र्यं कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, तृतीयखण्डं तु संज्वलनको प्रक्षिपति । यदि च स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथमं नपुंसक वेदम्, ततः पुरुषवेदम्, ततः पट्कम्, ततश्व स्त्रीवेदम् । यदि नपुंसकः प्रारम्भकस्तदा प्रथमं स्त्रीवेदम्, ततः पुरुषवेदम्, ततः षट्कम्, ततो नपुंसकवेदमिति । अन्यथा कल्पनं चानागमिकम् । न च 'स्त्रीलिङ्ग सिद्धा:' इत्यत्र स्वारसिकोऽयमर्थः, सतिसप्तम्याः स्त्रीलिङ्गव्यवस्थितस्यैव स्वरसतो लाभात् । परिभाषा चाऽसंप्रदायिकी कल्पितत्वाद् न प्रमाणम् इति न किञ्चिदेतत् ।
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'स्त्रियो न मुक्तिभाजः इत्यत्र च सर्वासां स्त्रीणां पक्षीकरणेऽभव्यस्त्रीया भुवत्यनभ्युपगमात् सिद्धसाधनम् । भव्यस्त्रीणामपि पक्षीकरणे भव्यानामपि सर्वासां मुक्त्यनभ्युपगमात् भव्यादि ते अनंता जे सिद्धिसुहं ण पार्वति " इति चचनप्रामाण्यात्, अवाप्तसम्यग्दर्शनानामपि पक्षीकरणे परित्यक्तसम्यग्दर्शनादि, अपरिष्कतसम्यदर्शीकरणेऽप्राप्ता चिकलचारित्राभिस्तद्दोषतादवस्थ्यात् ।
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उक्त अर्थ की उपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि सर्वप्रथम स्त्री वेद आदि का क्षय श्री शरीर निर्वृत्ति का नियमत: अविनाभात्री है। वस्तुस्थिति यह है कि यदि पुरुष क्षपकश्रेणि का प्रारम्भ करता है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करता है, उसके बाद खीवेद का, उसके बाद हास्य आदि छः नोकवाय का क्षपण करता है, और उसके अनन्तर पुरुषछेद कर्म के तीन खण्ड करके दो खण्डों का एक साथ नाश करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलनात्मक क्रोध में प्रक्षिप्स करता है । यदि स्त्री प्रारम्भ करती है तो वह पहले नपुंसक वेद उसके बाद पुरुषवेद, उसके बाद हास्य आदि छः नोकपाय और अन्त में स्त्रीयेद का क्षपण करती है। और यदि नपुंसक प्रारम्भ करता है तो पहले श्रीवेद उसके बाद पुरुषवेद, उसके बाद हास्य आदि पद नोकपाय तथा उसके बाद नपुंसक वेद का क्षपण करता है। यदि इससे भिन्न क्रम की कल्पना की जायगी तो वह आगम विरुद्ध होगी । 'बोलिङ्गसिद्ध ' शब्द का क्षपणकोक्त अर्थ स्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि स्त्रीलिङ्गसिद्ध शब्द के स्त्रीलिङ्गे सिद्धा:' इस विग्रह वाक्य में सति अर्थ में चिह्नित सप्तमी से स्त्रो शरीर में अवस्थिति का ही स्वभावतः लाभ होता है | क्षपणकों ने जो स्वारसिक अर्थ को त्यागकर पारिभाषिक अर्थ कहा है वह कल्पित होने से प्रामाणिक भी नहीं हैं। अतः उनके उक्त कथन का कोई मूल्य नहीं है ।
निरसन ]
'स्त्रियां मोक्ष की अधिकारिणी नहीं उक्त अनुमान में समस्त मोक्ष की अधिकारिणी भव्यत्री को पक्ष किया
[ दिगम्बरोक्त अनुमान का
क्षपणकों ने जो यह अनुमान प्रस्तुत किया है कि होती, क्योंकि वे स्त्री हैं, वह भी दोषग्रस्त होने से न्याज्य है । जैसे स्त्री की पक्ष करने पर अंशतः सिद्धसाधन है, क्योंकि अभव्य श्री नहीं होती - - यह बीमोक्षवादी को भी मान्य है । और यदि सम्पूर्ण जायगा तो भी सिद्धसाधन अनिवार्य है, क्योंकि सभी भयों की भी मुक्ति नहीं होती, इम विषय में प्रवचन - शाम्बवयन प्रमाण है । उसमें कहा गया है कि भव्य भी ऐसे अनन्त हैं जो मोक्षसुख नहीं प्राप्त कर पाते। जिन स्त्रियों ने सम्यकदर्शन प्राप्त कर लिया है यदि उन्हीं की पक्ष किया जाय तो सम्यकदर्शन प्राप्त कर उसका परित्याग कर देनेवाली स्त्रियों की मुक्ति मान्य न होने से उनमें सिद्धसाधन होगा। एवं जिन स्त्रियों ने सम्यकदर्शन प्राप्त