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________________ [शास्त्रवार्ता स्त० एल०१८ । देन व्यज्यते । भणितं च ग्रन्थकृता ललितविस्तरायाम्-"प्रकृतिसुन्दरं चिन्तामणिरत्नकन्पं संवेगकाय चैतन , इति महाकल्याणविरोधि न चिन्तनीयम् , चिन्तामणिरत्नेऽपि सम्यरज्ञानगुण एव श्रद्धाद्याशयभावतोऽविधिविरहेण महाकल्याणसिद्धेः" इति विभावनीयम् । प्रत्युताऽतः मुक्त्यर्थानुष्ठानाव, अन्यत्-विपरीतानुष्ठानम् हेयवस्तुपसाधकम् आयत्या सुदुःसहविचित्रदुःखप्रदम् तदात्वेऽपि दुष्कर-चित्तातिप्रदं विवेकिन इति । अत एव प्राणात्ययेऽपि विषभक्षणमिव नाकार्यमाद्रियन्ते धीराः, अनिष्टफलावश्यंभावप्रतिसंधानजनितदुःखस्य प्रवृत्तिप्रतिवन्धकत्वादिति स्मर्तव्यम् ॥ १७॥ एतदेवानिष्टवियोगोत्तरफललोभाद् निदर्शनान्तरेण समर्थयनाहमूलम्-व्याधिग्रस्तो पयारोग्यलेशमास्वादयन बुधः। अष्टे पुराने धीरः सम्यक्पोत्या प्रवर्तते ॥ १८ ॥ व्याधिग्रस्तः विषमज्वरादिरोगपीडितः पुरुषः, यथा कुतश्चिदुपक्रमात ,आरोग्यलोशं= स्वल्पमपि नीरुम्भावम् , आस्वादयन्-अतिपिपासितजललवास्वादप्रायमनुभवन, बुधः-हिताअश्रद्धा अवज्ञा मादि परिणाम का उदय होता है उसे मोक्ष के विषय में आन्तरप्रीति न होने के कारण मोक्ष के लिये अपेक्षित अनुष्ठान उसके मनस्ताप का जनक होता है । मूल ग्रन्थकार ने 'ललितविस्तरा' में इस बात को इन शब्दों में कहा है कि-'संवेग का यह कार्य स्वभावत: मनोरम तथा चिन्तामणि रल के समान महात् फल का साधक है। इसके विषय में यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि यह महाकल्याण का विरोधी है। किन्तु सवा सम्यक् आलोचन ही करना चाहिये। चिन्तामणि रश्न के विषय में भी सम्यक् ज्ञान ही गुण होता है, क्योंकि अन्यथा चिन्तन से उसके प्रति भी अवज्ञा प्रौर अनुत्साह का मनोभाव हो सकता है। इस में कोई सन्देह नहीं है कि संवेग कार्य के प्रति हृदय में घद्धा प्रादि का पवित्र आशय-पवित्र भाव होने पर अविधि का विरह होने से महाकल्याण की सिद्धि आवश्यक होती है।" विचार करने से सिद्ध यह होता है कि मोक्षार्थ अनुष्ठान दुष्कर नहीं होता किन्तु जो अनुष्ठान उसके विपरीत होता है वही बुष्कर होता है क्योंकि उसके परिणाममें वह विचित्र प्रकार के दुःख का जमक होने से उसी से चिस को पीडा पहुंचती है। विवेकी पुरुष का चित्त तो उस अनु. ष्ठान की कल्पना से ही प्रार्त हो उठता है। अत एव घोर पुरुष प्राणसंकट उपस्थित होने पर भी अकार्य करने में प्रवृत्त नहीं होते। किन्तु विषभक्षण के समान उसे स्याज्य समझते हैं। प्रकार्य से मावि में अनिष्टफल होने वाला है-इस ज्ञान से विवेकी पुरुष को दुःख होता है, उससे अकार्य में उसकी प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध हो जाता है ।।१७॥ १८वी कारिका में एक अन्य दृष्टान्त द्वारा इस बात का समर्थन किया गया है कि-भविष्य में अनिष्ट निवृत्ति होने को आशा में कठिन कार्य भी दुष्कर नहीं होता। कारिका का अयं इस प्रकार है--
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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