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________________ स्याक टीका एवं हिन्दीविवेचन ] . -- ऽहितज्ञः कष्टेऽपि-शरीरोपतापकारिण्यपि, उपक्रमे-ततकटुकौषधपानादौ निःशेषव्याधिघातनसमर्थे, धीरः अक्षोभ्यसत्त्वा, सम्यक्पोत्या उपायविषयदृढेच्छाप्रतिबन्धेन प्रवर्तते, भाव्यारोग्यस्वभावत्वात् ॥ १८॥ मूलम्-संसारव्याधिना प्रस्तस्तबज्ज्ञयो नरोसमः । शमारोग्यलयं प्राप्य भाषतस्तदुपक्रमे ॥ १९॥ दार्शन्तिफयोजनामाह संसारव्याधिना संसाररोगेण प्रस्तः पीडितः नरोत्तमः आसमभव्या, तज्ज्ञेयः प्रवृत्ति प्रतीत्य। किं कृत्वा, क्व च ? इत्याह-शमारोग्यलवम्अपूर्वकरणाद्यपक्रमजनितमिथ्यात्वाऽनन्तानुबन्धिकषायोपशमजनितं शमारोग्यस्य लेशम् प्राप्य, भावतः फलाभिष्वङ्गात् तदुपफमे-अशेषसंसारख्याध्यौषधभूते तीत्रानुष्ठाने ॥ १६ ॥ मूलम्-प्रवर्तमान एवं च यथाशक्ति स्थिराशयः । शुद्धं चारित्रमासाद्य केवलं लभते क्रमात् ॥ २० ॥ अतितीव्र प्यास से पीडित मनुष्य को जलके कुछ बुद मिल जाने पर जिस प्रसन्नता का मनुभव होता है, विषमज्वर प्रादि रोगों से ग्रस्त मनुष्य को भी किसी रोगापहारी उपचार से अति स्वल्प भी प्रारोग्य मिलने पर उसी प्रसन्नता का अनुभव होता है । अत: अपने हिताहित को समझने पाला धीर पुरुष पूर्ण मारोग्य की प्राप्ति के लिये ऐसे औषधि के भी सेवन में बड़े हर्ष से प्रवृत्त होता है जो तापप्रव, कटु तथा तत्काल शरीर के लिये कष्टप्रद होती है। वह ऐसा इसलियेकरता है कि वह पूर्ण आरोग्य प्राप्त करना चाहता है। प्रतः उसका जो भी उपाय हो उसे स्वाधीन करने की प्रबल इच्छा से वह प्रतिबद्ध होता है ।।१८।। १९वीं कारिका में वाष्टान्तिक-पानी दृष्टान्तद्वारा समर्थनयोग्य-संसार से त्रस्त पुरुष में, उक्त दृष्टान्त ज्वरादि प्रस्त रोगी की योजना, यतायी गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार रोग से अपने को पीडित समझने वाला उत्तम मनुष्य जो आसन्न मध्य अर्थात निकट में मुक्ति पाने के लिये योग्य होता है उसे प्रवृत्ति के विषय में उक्त रोगी के सदृश समझना चाहिये। कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे विषमज्वर प्रादि से ग्रस्त मनुष्य किसी सामान्य उपाय से अल्पमात्रा में आरोग्य का अनुभव होने पर पूर्ण प्रारोग्य के कठिन उपायों में मी सहर्ष प्रवृत्त होता है उसीप्रकार संसाररोग से प्रस्त मुमुक्ष पुरुष अपूर्वकरण आदि पूर्वोक्त उपाप से मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कवाय का प्रशम होने पर शमहप यत्किचिव आरोग्य का अनुभव कर लेने पर संसारनिवृत्तिरूप पूर्ण आरोग्य प्राप्त करने के लिये समग्र संसार व्याधि के औषयरूप तोवतप प्राधि के अनुष्ठान में सहर्ष प्रवृत्त होता है ।।१६।। [शुद्धचारित्र-ध्यानारोहणादिक्रम से केवलज्ञान ) २०वीं कारिका में मोक्षार्थी के तोत्रानुष्ठान का फल बताया गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्तरीति से मोक्षराग से प्रतिबद्ध स्थिरचित्तवाला मनुष्य, जिसका प्रशस्त परिणाम अशुभ
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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