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________________ [शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २० एवं च-उक्तेन प्रकारेण मुक्तौ रागप्रतिबन्धात् , यथाशक्ति-स्वशक्त्यनुसारेण प्रवर्तमानः, स्थिराशय दुर्लेश्याऽक्षोभ्यप्रशस्तपरिणाम:, शुद्ध' निर्मलम् चारित्रमासाद्य, क्रमात् ध्यानारोहपरिपाटीत केवल लभते। तथाहि-लेश्याविशुद्धया भावनाहेतुकसाम्यहेतु करागद्वेषजयेन वा कृतमनाशुद्धिमैत्री प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यपवित्रितचित्तो, भावितात्मा, पर्वतगुहाजीर्णोद्यान-शून्यागारादौ मनुष्यापातविकलेऽवकाशे मनोविक्षेपनिमित्तशून्ये सत्त्वोपघातरहित उचिते शिलातलादौ यथासमाधानं विहितपर्यायासनः; "जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइअव्वं" इति वचनात् , मन्दमन्दप्राणापानप्रचारः, अतिप्राणनिरोधे चेतसो व्याकुलत्वेनैकाग्रतानुपपत्तेः, "ऊसासंग णिरु भइ" इत्यादिवचनप्रामाण्यात, निरुद्धलोचनादिकरणप्रचारो, हृदि ललाटे मस्तकेऽन्यत्र वा यथापरिचयं मनोवृत्तिं प्रणिधाय प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुख उदङ्मुखो (वा) ध्यायति धन्यम् । तत्र वामाध्यात्मिकमावानां याथात्म्यं धर्मस्तस्मादनपेतं धय॑म् । तञ्च द्विविधम्-वाद्यम् , आध्यात्मिकं च । तत्र सूत्राऽर्थपर्यावर्तन-दृढव्रतता-शीलानुराग-निभृतकायवागच्यापारादिरूपं बाह्यम् । आध्यात्मिकं चात्मनः स्वसंवेदनग्राह्यम् , अन्येषामनुमेयम् । तच्च तत्त्वार्थसंग्रहादौ संक्षेपतश्चतुर्विधमुक्तम् । अन्यत्र दशविधम् , अपायोपाय-जीवाजीच-विपाकविराग-भव-संस्थाना-ऽऽशा-हेतुविचयभेदात् । लेण्यानों से अवरुद्ध नहीं होता, अपनी शक्ति के अनुसार मोक्ष के लिये अपेक्षित तीवानुष्ठान में प्रवृत्त होता है जिसके फलस्वरूप वह निर्मल चारित्र को प्राप्त कर ध्यानारोहण के क्रम से केवलज्ञान प्राप्त करता है। कहने का प्राशय यह है कि लेश्या की विशुद्धि से केवल प्रथवा भावनामूलक साम्य से अजित रागद्वेषजय द्वारा जिसका मन शुद्ध हो जाता है, एवं मंत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य की भावना से जिसका चित्त पवित्र हो जाता है. तथा उत्तम संस्कारों से जिसका अन्त करण भावित= वासित बन जाता है ऐसा मनुष्य पर्यत की गुफा, प्राचीनवाटिका अथवा शन्यमन्दिर आदि में, ऐसे समय जब मनुष्य के प्रवेश की संभावना नहीं होती, किसी ऐसे उचित पाषाणशीना पर जहाँ मन के विक्षेप का कोई निमित्त नहीं होता तथा सत्य का कोई उपधात नहीं होता, योगसोधना के योग्य किसी भी पर्यकादि आसन लगाकर बैठ जाता है । कोई भी आसन इस लिये कि मन वचन और काया जिस प्रकार से समाहित बने रहें उस प्रकार से ही प्रयत्न करना चाहिये । सथा प्राण के अत्यन्त निरोध से व्याकुल हो जाने के कारण चित्त की एकाग्रता का प्रतिबन्ध न हो इस विचार से अपने प्राण तथा अपान वायु का मन्द-मन्व संचार करता है और धीरे धीरे नेत्र आदि अन्य करणों की गति कर अवरोध कर हृदय, ललाट, मस्तक अथवा किसी अन्य स्थान में अपनी जानकारी के अनुसार अपनी मनोवृत्ति को केन्द्रित कर देता है तथा पूर्वदिशा की या उत्तर दिशा को संमुख प्रसन्नयनन होकर धर्म्य ध्यान का प्रभ्यास करता है। धर्ना का अर्थ है जो धर्मविरुद्ध न हो, धर्मसंगत हो, और धर्म का इस सन्दर्भ में १. योगानो समाधानं यथा भवति तथा प्रतितव्यम् । २. उच्छ्वास न निरुन्ध्यात् ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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