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स्या० क० टोका एवं हिन्दोविवेचन ]
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१ तत्रापाये विघयो-विचारो यस्मिंस्तदपायविचयम् , एवमन्यत्रापि योज्यम् । 'दुष्टानां मनो-वाक्-क्रायव्यापारविशेषणामपायः कथं नु नाम मे स्यात् । यदशात् प्राप्तेऽपि सौराज्ये भिक्षायै बालिश इव स्वायत्तेऽपि मोक्ष भवाय प्रान्तमानस्मि । इत्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धः, दोषपरिवर्जनपरिणतेः कुशलप्रवृत्तित्त्वावपायविचयम् ।
२ तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपाया, 'स कथं नु मे स्यात् , यतो भवति मोहपिशाचादास्मरक्षा? इति संकल्पप्रबन्ध उपायविषयम् ।
३ असंख्येयप्रदेशात्मक-साकाराऽनाकारोपयोगित्वाऽ*नादित्व-कृतकर्मफलोपभोगित्वादिजीवस्वरूपानुचिन्तनं स्वात्ममात्रप्रतिबन्धौपयिक जीवविचयम् ।
प्रर्थ है बाह्य और प्राध्यात्मिक भावों का यथावस्थित स्वरूप । तात्पर्य यह है कि बाह्य और आध्या. स्मिक मावों के वास्तविकस्वरूप के अनुरूप जो ध्यान है वही धर्म्य है । धम्यं के वो मेव हैं बाह्य और आध्यात्मिक । सन्त्रार्थ का पर्यावर्तन यानी पुनः पुनः अनुशीलन करना, व्रतों में दृढ बना रहना, शीलप्रेम, शरीर वाणी और मन का प्रक्षामभित व्यापार आदि सब बाह्य धर्म्य ध्यानरूप है । आध्यास्मिक धर्म्य का अर्थ है प्रारमधर्म का ध्यान जो सौर्फ स्वानुमववेद्य होता है, दूसरों को सीर्फ अनुमानसे ही उसका पता लगता है । 'तत्त्वार्थस्नत्र' प्रावि में आध्यात्मिक धयं का संक्षेप से प्रसिद्ध धार मेव बताये गये हैं। अन्य ग्रन्थों में दश भेद भी बताये गये है जैसे अपायविषय, उपायविचय, जोवविधय, अजीवविचय, दिपाकविचय, विरागविचय, मवविचय, संस्थानविक्य, आज्ञा विषय और हेतुविचय । (१) अपायविचय:
जिस में अपाय के सम्बन्ध में विचय-विचार हो उसे अपायविचय कहा जाता है। उपायविचघ आदि का भी इसी तरह समासविप्रह करके व्याख्या करनी चाहिये। हमारे मन, वचन और शरीर के उम दुष्ट व्यापारों को निवृत्ति कैसे हो? जिन के कारण ही मोक्ष अपने अधीन होते हुए भी उसकी उपेक्षाकर हम संसार के लिये, सांसारिक वैभव के लिये ही चारों ओर चक्कर लगाते हैं। हमारी दशा ठीक उस मूर्ख मनुष्य की दशा जैसी है जो एक सुन्दर समृद्ध राज्य पाकर भी भीख मांगता फिरता है । मन आदि के इन दष्ट पापारों को निवृत्त करने के लिये ऐसी सतत संकल्प परम्परा ही अपाय विचय है क्योंकि दोषपरिवर्जन के रूप में परिणत होने से कुशल प्रवृतिरूप है। (२) उपाचत्रिचय:
मन, वचन और शरीर के कुशल व्यापारों को प्रङ्गीकार करने का नाम है उपाय । ये उपाय हमें किसप्रकार सुलभ हो, जिस से मोह पिशाच से हमारी रक्षा हो सके इसप्रकार की सतत संकल्प परम्पराही उपाविचय है, क्योंकि इसमें उपायों का विचार अन्तभूत है। (३) जीवविचयः
जीव असंख्येयप्रदेशस्वरूप है । साकार अनाकार भेद से उसके दो उपयोग हैं । वह अनादि तथा
* प्रत्यन्तरे 'दिस्वकृ' ।