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[ शास्त्रमा स्स. एलो. २०
४ धर्मा-ऽधर्मा-ऽऽकाश-काल-पुद्गलानां गति-स्थित्य-ऽवगाइना-वर्तना-ग्रहणगुणानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तनं शोका-ऽऽतकनिदानदेहात्माद्यभेदभ्रमापनोदक्षममजीपति
चयम्।
५ मुलोचरप्रकृतिभेदभिन्नस्य पुद्गलात्मकस्य कर्मणो मधुरकटुफलस्थाऽऽ-ऽर्हतः संपदमा अनारकविपदमेकातपत्रसाम्राज्यग्रसरस्य विपाकचिन्तनं कर्मफलामिलाप मुख्यविधायि विपाकविचयम् ।
६ "कुत्सितमिदं शरीरं शुक्रशोणितसमुद्भुतमशुचिभृतं वारूणीघटोपममशुचिपरिणामि च यत्र क्षिप्तमात्राण्येव मिष्टामान्यपि विष्ठासाद् भवन्ति, मूत्रसाच्चामृतान्यपि । तथाऽनित्यमपरित्राणं च न खलु समुपस्थिते यमातङ्क पिता, माता, आता, स्वसा, स्नुषा, तनयो वा पातुमीष्टे । तथा, गलदशुचिनच्छिद्रतयाऽशुचि, नात्र किश्चित् कमनीयतरमस्ति । किंपाकफलोपमोगोपमा विपाककटवः प्रकृत्या भङ्गुराः पराधीनाः संतोषामृतास्वादपरिपन्थिनः सद्भिनिंग
अपने किये कर्मों के फलों का भोक्ता है, जीवस्वरूप के ऐसे अनुचिन्तन से चिन्तक स्कात्म मात्र में प्रतिबद्ध हो जाता है, जीवविषयक विचार के अन्तर्भूत होने से इस अनुचिन्तन को जोवविषय कहा जाता है। (४) अजीवविषय:
धर्म, अधर्म, माकाश, काल और पुदगल ये अजीब हैं । इन में धर्म का गुण है गतिसहाय, मधर्म का गुण है स्थितिसहाय, आकाश का गुण है अवगाहना. काल का गुण है वर्तना और पुद्गल का गुण है ग्रहण । समी अजीव अनन्त पर्यायरूप हैं। मजीवों के इस अनुचिन्तन से शोक और भय के हेतु बेहात्मक्यबुद्धि का परिहार होता है। अजीवविषयक विचार के अन्तर्भाव के कारण इसे अजीवविषय कहा जाता है। (५) विपाकविचय:
कर्म पुद्गल रूप है । मल प्रकृति-उत्तरप्रकृति के भेव से यह मुख्यतया द्विविध है -मधुर, कटु आदि अनेक उनके फल है। अहंत पद की समद्धि से लेकर नारकीय जोवन तक इसका साम्राज्य फैला है। इसके विपाक-फलप्रद उदय का अनुचिन्तन कर्मफल को कामना का निवर्तक है। इस अनु. चिन्तन में विपाकविषयकविचार का समावेश होने से इसे विषाकधिचय कहा जाता है। (६) विरागविचयः
हमारा यह शरीर अत्यन्तजुगुप्सापात्र है। शुक्र और शोणित से इसको उत्पत्ति होती है। यह अपवित्र वस्तुओं से भरा है, मघट के समान इस का परिणाम अशुचि है । मधुर से मधुर अन्न इसमें पडकर विष्ठा बन जाता है, अमृत मी मूत्र बन जाता है। यह प्रनित्य और असुरक्षित है, मृत्यु का मय उपस्थित होने पर पिता, माता, भाई, बहन, पतोहू, पुत्र कोई इसकी रक्षा नहीं कर पाता। गलते