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स्या० क० टीका एवं हिन्दीविषेचन )
दिता विषयाः, तदुद्भवं च सुखं लालापातनाद् बालानां दुग्धास्वादसुखवदपारमार्थिकमिति नात्राssस्था विवेकिनां युक्ता । विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणी । प्रज्वलितज्वलनकल्पो ायं गृहनिवासः, यत्र दारुदाहं दहन्ति विषयस्निग्धानीन्द्रियाणि प्रसरति च धूमधारेवाज्ञानपरम्परा, धर्ममेव एव तद्विध्यापनाय पडुरिति तत्रैव प्रयत्न उचित" इत्यादि रागहेतुविरोधानुचिन्तनं साक्षादेव समुल्लसितपरमानन्दास्वादं वैराग्यविश्वयम् ।
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७ प्रेत्यस्व कृतकर्मफलोपभोगार्थं प्रादुर्भावः तत्र चारघट्टघटीयन्त्रवद् मृत्र- पुरीषा ऽन्त्रम यदुर्गन्धिजठर कोटरादिष्वजनमावर्तमानस्य स्वकृत भोक्तुर्जन्तोर्न कश्चित् सहाय इत्यादि भवर्सक्रान्तिपर्यालोचनं सत्प्रवृत्तिहेतुभर निर्वेदनिदानं भवचिचयम् ।
८ अधोवेनासनसमः, मध्ये झल्लरीनिभः, अग्रे सुरजसंनिभो लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मक इत्यादि संस्थानानुचिन्तनं विषयान्तरसंचारविरोधि संस्थानविवयम् |
हुये नव छिद्रों से युक्त होने से यह प्रशुचि है। इसमें कुछ भी सुंदर नहीं है। विषयों के सम्बन्ध में सत्पुरुषों का कहना है कि विषयों का उपभोग किम्पाक फल के उपयोग के समान परिणाम में कटू, स्वभावतः नम्वर, पराधीन और सन्तोषामृत के आस्वाद के विशेषी होते हैं। उनसे उत्पन्न सुख ला गिरने से बच्चों को प्राप्त होनेवाले दुग्धास्वाद के सुख के समान मिथ्या है। अतः विषयसुख में विवेकी पुरुषों की कोई प्रास्था नहीं होती । विषयविरक्ति हो श्रंपस का साधन होती है । गृह में निवास जलती आग के समान दाहक होता है, जिस में विषयस्नेह से सिक्त इन्द्रियां मनुष्य को तलसिक्त काष्ठ के समान वग्ध करती हैं और धूमधारा के समान अज्ञान परम्परा का प्रसार होता है । धर्ममेघ हो इस आग को शांत करने में समर्थ होता है । रागहेतु के विरोध का यह अनुचिन्तन साक्षात् परमानन्द के ही प्रास्वाद को समुल्लसित करता है। वैराग्यविषयक विचार के प्रनुप्रवेश से इस अनुचिन्तन को विरागविचय कहा जाता है ।
(७) भवविचयः -
पूर्वकृत कर्मों के उपभोग के लिये मृत्यु के बाद मनुष्य का नया जन्म होता हैं। कुएं से पानी निकालने के लिये जो घटीयन्त्र घडों का यन्त्र बनता है उसे अरघट्ट- अरहरू कहा जाता है उसमें बंधे घडे, जैसे कु के भीतर और बाहर निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं वैसे हो जीव मो सूत्र मल तथा आंतों के दुध से भरे पेट के कोटरों में निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं, कर्मों के फलभोग में दूसरा कोई उनका सहायक नहीं होता। संसार के संक्रमण का यह पर्यालोचन सत् प्रवृत्ति के हेतुभूत भवनिर्वेद का जनक होता है। इसमें भवविचार की बहुलता होने से इसे भवविच्य कहा जाता है । (c) संस्थानविचयः
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लोक नीचे की ओर बेंत के आसन के समान आकार वाला है, मध्य में झल्लरो के समान आकारवाला है और उपर सुरक्ष के समान आकारवाला है तथा असंख्य कोटाकोटोयोजन प्रमाण एक रज्जु ऐसा १४ रज्जु प्रमाण वह ऊपर-नीचे आयल संस्थान लोक के आकार का यह अनुचिन्तन