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________________ ९८ ] [ शास्त्रवास्ति . लो. २० हेतूदाहरणादिसद्भावेऽपि चुद्धथतिशयविकलैः परलोक बन्ध-मोक्ष-धर्मा-ऽधर्मादिभावेवतीन्द्रियत्वादत्यन्तदुःखमोघेष्वाप्तप्रामाण्यात् तद्विषयं तद्वचनं नानृतमित्यनुचिन्तनं सकलप्रवृत्तिजीवातुश्रद्धासंतत्यविच्छेदकरमाशाविषयम् । १० आगमविषयविप्रतिपचौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकागमस्य कषच्छेदतापशुद्धितः समाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं विशिष्टश्रद्धाभिवृद्धिकरं हेतुविषयम् । ___ तदेवंविधधर्मध्यानरूपसंवरमाहात्म्याद निर्जीर्णबहुकर्मणः पीत-पय-सितलेश्याबलाघानवतोऽप्रमत्तसंयतस्य कषायदोषमलापगमात् शुचित्वं भवति । ततः चरमशरीरः परमशुक्ललेश्याकृतापूर्वस्थितिरसघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रम-स्थितिबन्धादिक्रमो चक्रामुपशमश्रेणी विहाय ऋज्यों क्षपका प्रतिपक्ष आय शुक्लाव्यानं ध्यायति पृथक्त्ववितर्कसपोचाराख्यम् । तत्र पृथ त्वं नानात्वम् , वितर्कः श्रुतज्ञानम् , तच पूर्वगतमन्यद् वा न तु पूर्वगतमेव, माषतुप मरुअन्य विषयों के संचार का विरोषी है, संस्थानविषयक विचार को प्रधानता से इसे संस्थानविषय कहा जाता है। (९) आशाविषय: हेत. उदाहरण मावि हेतु होते हये भी उत्कृष्ट बुद्धि रहित पुरुषों को परलोक, बन्ध, मोक्ष, धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय भावों का बोध अत्यन्त दुर्लभ होता है। आप्त पुरुष प्रमाण होने से इन वस्तुओं के विषय में जन का वचन मिथ्या नहीं हो सकता, इन वस्तुओं के ऐसे अनुचिन्तन से सम्पूर्ण सत्प्रवृत्ति के प्राणभूत श्रसासम्सान की अविच्छिन्नता बनी रहती है, आज्ञा यानी आप्तोपदेश के विचार का अन्तर्भाव होने से इस प्रमुश्चिन्तन को आज्ञाविचय कहा जाता है। (१०) हेतुविचयः मागम से प्रतिपाद्य विषयों के सम्बन्ध में बमत्य होने पर तर्फयुक्त बुद्धि से कषण, छेवन तापम-ऊहापोहवितर्कमय परीक्षण द्वारा स्याद्वाद शास्त्र की शुद्धता का परीक्षण करके बुद्धिमान पुरुष को उसी का आश्रय लेना चाहिये। इसप्रकार के अधिनसन से स्यादवादशास्त्र में विशिष्ट घया को अभिवृद्धि होती है, इसमें स्यादवाव -प्रागम की शुद्धताबोधकहेतु के विचार का समावेश होने से इसे हेतुविषय कहा जाता है। [धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर ] उक्तप्रकार के धर्मध्यानरूप संवर के प्रभाव से बहुत से कर्मों की निर्जरा हो जाती है। पीत पप, सितलेश्या प्रबल हो जाती है। संयम पालन में प्रमाद नहीं होने पाता, कवायदोषरूपी मल की १. मुक्ति के उद्देश से जिस शास्त्र में अनुकुल विधि-निषेध बताये गये हो वह शास्त्र कषशुद्धि वाला है। विधि-निषेध का योगक्षेम करने वाली क्रिया आचार का प्रतिपादक शास्त्र छेदशद्धिवाला है। किसी एक अंग से नहीं किन्तु सर्वांग से वस्तु का निरूपण करने वाला शास्त्र तापशुद्धि वाला है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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