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स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन J
'केवलज्ञानमतं त्रुता कि कर्मच्यापारकत्वव्यसनन । ति चेत् ! अर्नामोस, न हि व कर्मणामपि भावतश्चारित्ररूपेणानुवृत्तता न मः, उत्तरोत्तरविशुद्धयाऽविशुद्धपर्यायापगमेऽपि पर्यायसोनपगमात् । युक्तं चैतत् , इत्यमेव ज्ञान-मुक्त्यादावनुगतहेतुहेतुमद्भावादिव्यवहारोपपत्तः, बाधकर्मणां तदभिष्यञ्जकतयैवोपयोगात् , इदमेव भावतः सत्वशुद्धिः, कर्मापगमस्तु द्रव्यतः । तदाहुः-[ योगशाख ४-८० ]
"यः कर्मपुद्गलादानच्छेदः स द्रव्यसंवरः ।
भवहेतुक्रियारयागः स पुनर्भावसंवरः॥ १॥" इति दिग् । एनेन-"न कर्मणा न प्रजया न धनेन नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय, नास्त्यकृतः कृतेन"
कर्मणा वध्यते जन्तुविद्यया च विमुच्यते ।
तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥१॥" इत्यादि श्रुति-स्मृतिशतेन कर्मणा निषेधात् , “तपमा कल्मषा हन्ति" इत्यादिना तत्त्वज्ञानोत्पनियनियन्धरिजनिवृत तारावाप्तिनिप्रदान, यागकारणताग्रहीतरकल्प्यनापूणोपजीव्यविरोधेन यागान्यथासिद्धयभावेऽपि प्रतिबन्धकाभावस्य कार्यमात्रकारणतायाः प्रागेवावधारणात् तेन कर्मणोऽन्यथासिद्धेः सुवचत्वात ; मङ्गल-कारीयोरिव वृष्टि-समाप्त्योन कर्मणां मुक्तिहेतुत्वम् , किन्तु ज्ञानस्यैव "ज्ञानादेव नु कैवल्यम्" "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति" "तरति शोकमारमवित्" "ब्रह्मविदाप्नोति पर ब्रमेव भवति" इत्यादिश्रुति-स्मृतिशतस्वरसादनन्यथासिद्धत्वाच-इति नव्यमतमप्यपास्तम् ।
[ज्ञान-कर्मसमुश्चयवाद का समर्थन ] सिद्धान्ती जैन के प्रति यह प्रश्न हो सकता है कि जब वे मोक्षपर्यन्त केवलशान का प्रतुवर्तन मानते हैं तो ज्ञान को कर्मद्वारक मानने में उनकी आसक्ति क्यों है ? व्याख्याकार कहते हैं कि यह प्रश्न अज्ञानमूलक है, क्योंकि जैन का यह कहना नहीं है कि- केवलज्ञान मात्र का ही मोक्षपर्यन्त अनुवर्तन होता है. कर्मों का भावतः चारित्ररूप में भी अनुवर्तन नहीं होता', अपितु जैनों का कहना यह है कि चारित्र पालन से उत्तरोतर विशुद्धि द्वारा अशुद्ध पर्यायों को नियत्ति होने से शुद्ध पर्याय युक्त-कर्म का भी मनुवर्तन होता है। यही युक्त भी है. क्योंकि ऐसा मानने पर ही शान मुक्ति आदि में अनुगत हेतुहेतुमद्धाब प्रावि व्यवहारों की उत्पत्ति हो सकती है। प्रतः स्पष्ट है कि जैन मत में ज्ञान के समान भावकम का भी मोक्षपर्यन्त अनुवर्तन मान्य है, अमान्य केवल बाह्य कर्मों का अनुवर्तन है, क्योंकि उनका उपयोग मावकर्म को अभिव्यक्त करने मात्र में होता है, अन्तःकरण की शुद्धि भी यही है कि वह भावकर्म मात्र से युक्त हो जाता है, न कि यह कि वह कर्मों से सर्वथा पृथक हो जाता है क्योंकि कर्म का पृथक्करण द्रव्यरूप में ही होता है भावरूप में नहीं। भावरूप में कम