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________________ २४ ] [ शास्त्रवातास्त लो०४ 'तत्त्वज्ञानप्रतिवन्धकादृष्टनाशककर्मणां मोक्षे जनयितव्ये तत्वज्ञानद्वारकत्ववत् तत्वज्ञानस्यापि मुक्तिप्रतिबन्धकप्रारब्धनाशकयोगिप्रयत्नविशेषकर्मद्वारकत्वसाभ्याश्च अन्तिमतत्त्वज्ञानमेव मुक्तिहेतुरिति न तत्र कर्मद्वारकत्वमिति चेत् १ तहिं अन्तिमकमैव तत्त्वज्ञान जनकमस्तु, इति का तत्र सत्वशुद्धिद्वारकत्वप्रतिज्ञा ? । अन्तिम कमव च मुक्तिहेतुः, न त्वत्र तत्वज्ञानद्वारकत्यमित्यपि च न दुर्वचम् । स्नान आदि कर्म जलस्थ जीव को हिंसा से मिश्रित है, अस: ईश्वरार्पण बुद्धि से विहित होने पर भी वे अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा तत्वज्ञान के हेतु नहीं हो सकते; प्रौर यदि हिसामिश्रित होने पर भी ईश्वरार्पणबुद्धि से विहित होने के कारण स्नान आदि कर्म अन्त:करण के शोधक होकर तत्वज्ञान के जनक होंगे तो ईश्वरार्पणबुद्धि से ब्रह्महत्या, श्येनयाग ग्रादि का अनुष्ठान करने पर उनमें भी अन्त:क करण शधि द्वारा मोक्षजनकत्व की ग्रापत्ति होगी। काशी मरण मावि से भी नियमतः अन्तःकरण की शुद्धि होती है ऐसा नहीं है, क्योंकि काशी में मरने वाले अनेकों में रौनध्यान आदि लिङ्गको उपलब्धि होती है, अतः 'शंकर के उपवेश द्वारा काशी-मतों को तस्वज्ञान की प्राप्ति होतो है', यह मानने में कोई प्रमाण नहीं है । इसके अतिरिक्त यह भी एक बात है कि यदि यह कहा जायगा कि-'भगवान् शङ्कर काशी में मरणासन्न को तत्वज्ञान का उपदेश करते हैं तो यह भी सम्भव हो सकता है कि उस उपदेश को सन्निहित कोई अन्य व्यक्ति भी कभी सुन ले और उससे तत्त्वज्ञान प्राप्त कर काशी से बाहर मरने पर भी मुक्त हो सके, किन्तु यह बात उन्हें मान्य नहीं है । इस सम्भावना के निराकरणार्थ यदि यह कहा जाय कि- भगवान् शंकर काशी में मरणासन्न प्राणी को जो उपदेश देते हैं, वह केवल उसी के सुनने योग्य होता है तो इस कल्पना में श्रद्धा से अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है और ओ बाप्त केवल किसी श्रद्धा पर निर्भर होतो है वह अन्य के लिये मान्य नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि यदि यह माना जायगा कि-'जो कर्म तत्वज्ञान के प्रतिबन्धक पापात्मक अदृष्ट के नाशक होते हैं, वे तत्त्वज्ञाम द्वारा मोक्ष के जनक होते हैं तो यह भी कहा 'जा सकेगा कि योगी के जिस प्रयत्नविशेष-साध्य कर्म से मुक्ति के प्रतिबन्धक प्रारब्ध कर्म का नाश होता है, तत्त्वज्ञान भी उस कर्म के द्वारा मुक्ति का जनक होता है। यदि यह कहा जाय कि-'पूर्व के तत्त्वज्ञान मोक्षजनक नहीं होते किन्तु अन्तिम तत्त्वज्ञान ही मोक्षजनक होता है अतः उसे कर्म द्वार की अपेक्षा सम्भव नहीं हो सकती'-तो कर्म के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि अन्तिम कर्म हो मोक्ष का जनक होता है अतः उसे किसी द्वार को अपेक्षा नहीं होती। फलतः यह प्रतिज्ञा निराधार है कि कर्म सत्त्वशुद्धि आदि द्वारा ही मोक्ष का जनक होता है। अत एव यह कहने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि अन्तिम कर्म हो मोक्ष का जनक होता है, उसे तत्त्वज्ञानरूप द्वार की अपेक्षा नहीं होती। रौद्रध्यान-- यह हिंसानुबन्धी-असत्यानुबन्धो स्तेयानुबन्धी-परिग्रहसंरक्षणानुबन्धी तीवसंक्लिष्ट ध्यानस्वरूप होता है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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