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________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० ४ की निवृत्ति तो मोक्षकाल में ही होती है । कर्म त्याग का पृथक्करण योगशास्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि-फर्म पुद्गलों का अग्रहण दृष्यसंयर है और भवजनिका क्रिया का त्याग भाषसंबर है। [ज्ञानमात्र से मोक्ष-नव्यमत ] नव्य चिन्तकों का मत है कि कर्म मुक्ति का हेतु नहीं है किन्तु ज्ञान हो मुक्ति का हेतु है । उस मत के समर्थन में उनकी ओर से प्यास्थाकार ने कई शास्त्रवचन उद्धृत किये हैं, उनमें प्रथम तीन श्रुति वचन हैं, कम से उनका अर्थ इस प्रकार है - 'मोक्षार्थी पुरुषों ने कर्म, सन्तान अथवा धन से कभी भी अमृतत्व-मोक्ष को नहीं प्राप्त किया है किन्तु इन वस्तुओं के श्याग से उसे प्राप्त किया है।' 'तत्त्वज्ञान से अतिरिक्त मोक्ष का कोई मार्ग-उपाय नहीं है।' 'अकृत-नित्य मोक्ष, कृत-जन्य कर्म से नहीं प्राप्त होता।' श्रुति वचनों को उद्धृत करने के बाद व्याख्याकार ने एक स्मति वचन भी उधत किया है, जिसका अर्थ इस प्रकार है: 'जीव कर्म से बद्ध होता है और ज्ञान से मुक्त होता है, इसलिये तत्त्वद्रष्टा योमो कर्म नहीं करते।' इन वचनों से कर्म में मोक्षसाधनता का स्पष्ट निषेध किया गया है। एक शास्त्र-वचन और उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ इस प्रकार है कि-मोक्षार्थी तप-कर्म विशेष) से पाप को नष्ट करता है । इस वचन से निस्सन्दिग्ध सूचना मिलती है कि कम तत्वज्ञान उत्पत्ति के प्रतिबन्धक पाप को नष्ट कर मोक्ष के प्रति प्रन्यथासिद्ध हो जाता है। इस वचन के विरुद्ध यह शङ्का हो सकती है कि-'जैसे याग स्वजन्य अपूर्व से स्वर्ग के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं होता, वैसे ही कर्म भी स्वजन्य प्रतिबन्धकनिवृत्ति से अन्यथासिद्ध नहीं हो सकता'-किन्तु विचार करने पर यह शङ्का ठीक नहीं प्रतीत होती, क्योंकि अदृष्ट और प्रतिबन्धकनिवृत्ति में प्रातर है, जैसे अदृष्ट में स्वर्गकारणता यागनिष्ठ स्वर्गकारणता के अधीन है क्योंकि याग में शास्त्रप्राप्त स्वर्णकारणता को उपपत्ति के लिये ही अदृष्ट को याम के व्यापार रूप में स्वर्ग का कारण माना जाता है, ऐसी स्थिति में यदि प्रष्ट से याग को अन्यथासिद्ध मानकर याग में स्वगकारणता का परित्याग किया जायगा तो उपजीव्यविरोध होगा, जो उचित नहीं कहा जा सकता । किन्तु कर्म से जो पापनिवृत्ति होती है उसमें प्रतिबन्धकाभाव के रूप में तत्त्वज्ञान की अथषा मोक्ष को कारणता सिद्ध है। इस कारणता को सिद्धि कर्मनिष्ठ तत्त्वज्ञानादि की कारणता पर निर्भर नहीं है अतः पापनिवृत्ति को तत्त्वज्ञानादि का कारण· मानकर यदि कर्म में तत्त्वज्ञानादि की कारणता को प्रस्वीकार कर दिया जाय तो उपजीदय विरोध नहीं प्रसक्त हो सकता। अतः पापनिवृत्ति से अन्यथा सिद्ध हो जाने के कारण कर्म को तत्वज्ञानादि का कारण नहीं माना जा सकता, इसलिये प्रस्तुत विचार से यही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि जैसे मङ्गल समाप्ति का और कारीरीयाग वृष्टि का कारण नहीं होता, उसी प्रकार कर्म भी मुक्ति का कारण नहीं हो सकता । फलतः यह निर्विवाद रूप से घोषित किया जा सकता है कि ज्ञान ही मुक्ति का हेतु है। झान से मोक्ष की उत्पत्ति के प्रतिपादक कई वचनों को भी व्याल्याकार ने उद्धृत किये हैं। उनमें पहले का अर्थ है कि-झान से ही कंवल्य-मोक्ष होता है। दूसरे का अर्थ है 'मोक्षार्थी पात्मज्ञान प्राप्त
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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