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________________ स्मा० १० टीका एवं हिन्वी विवेचन ] [ २७ प्रतिबन्धकामावस्यापि तुच्छरूपस्याऽसिद्धेः, भावशुद्धिरूपस्य च चारित्ररूपक्रियापर्यवसायित्वात् , ज्ञान-कमभ्यां द्वाभ्यामपि तत्र तत्र मुक्त्युत्पत्यभिधानाविशेषेऽप्येकत्रानन्यथासिद्धत्वपरित्यागेन नियतपूर्ववत्तित्वमात्रार्थादरस्यान्यत्राऽप्यविशेषात् , नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकेन येन रूपेण कारणत्वं न व्यवाहियते तेन रूपेणान्यशासिदत्वस्य व्यवहारन येनेर निश्चयनयेनाप्यव्यवहितपूर्फवर्तितानवच्छेदकरूपेणान्यथासिद्धेरभ्युपगमादित्यन्यत्र विस्तरः । तस्माद् गुरुमनुमृतस्याऽशठभावस्य दर्शन-ज्ञान-त्रारित्राण्यैव परो मोक्षोपायः एकवैकल्येऽपि फलाऽसिद्धरिति व्यवस्थितम् । करके ही अतिमत्यु-मोक्ष को प्राप्त होता है। तीसरे वचन का अर्थ है कि-'प्रात्मानसम्पन्न पुरुष शोकसंसार को तर जाताहै।' चौथे बचन का अर्थ है कि-'ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है।' श्रुति-स्मृति के ऐसे सैकड़ों वचनों से यह सिद्ध है कि-'कर्म मोक्ष का कारण नहीं है किन्तु मोक्ष के प्रति अन्ययासिद्ध है। व्याख्याकार कहते हैं कि नव्यचिन्तकों का यह मत भो निरस्त है क्योंकि उक्त युक्तियों से कर्म में मोक्षकारणता सिद्ध होने से तदनुसार ही इन वचनों को ध्याख्या युक्तिसंगत हो सकती है। __ उक्त नव्य मत का निरसन करने के लिये ध्याख्याकार ने जो अन्य युक्तियां दी है, वे इस प्रकार हैं: [ नव्यमत-निरसक युक्तियां ] (१)प्रतिबन्धकामाव अभाव होने से तुच्छ है अतः उसे तत्वज्ञान आदि का कारण मानकर उससे कर्म को अन्यथासिद्ध नहीं किया जा सकता, जैनमत में दुरितनिवृत्ति कारण नहीं होती, किन्तु उसके स्थान में भावशुद्धि कारण होती है और भावशुद्धि चारित्ररूप एक क्रिया है, अतः उससे कर्म अन्यथासिद्ध नहीं हो सकता। (२) 'शान मोक्ष के प्रति अनन्यथासिद्ध होने से मोक्ष का कारण है और कर्म अन्यथासिद्ध होने से मोक्ष का कारण नहीं हैं, इस बात के विरुद्ध एक और युक्ति है, वह यह है कि जब अनेक वचनों द्वारा ज्ञान-कर्म दोनों से मुक्ति की उत्पत्ति का अभियान समानरूप से किया गया है तब उनमें से किसी एक में यदि अनन्ययासिद्धत्व का त्याग कर नियतपूर्ववति अर्थमात्र में कारणत्व का व्यवहार माना जायगा तो यह बात समानन्याय से अन्य में मो मामनी पड़ेगी, अतः उन दोनों में यह वैषम नहीं किया जा सकता कि कम मोक्ष का नियतपूर्ववतिमात्र है, अन्यथासिद्ध होने के नाते वह मोक्ष का कारण नहीं है, और ज्ञान मोक्ष का नियतपूर्ववर्ती होने के साथ साथ अनन्यथासिद्ध भी है अतः सह यह मोक्ष का कारण है । इस सम्बन्ध में यह बात अन्यत्र विस्तार से बताई गई है कि जैसे व्यवहार नय के आधार पर यह मान्य है कि जिस नियतपूर्वतितावच्छेवकरूप से जिसमें कारणत्वका म्यवहार नहीं होता, उस रूप में वह अन्यथासिद्ध होता है; उसी प्रकार निश्चयनय के आधार पर यह भी मान्य है कि जो रूप पव्यवाहित पूर्वतिता का अनवच्छेदक होता है, उस रूप से कार्य का नियत पूर्ववती भी अन्यथासिद्ध होता है, फलतः कम यदि मोक्ष के नियतपूर्वतितावच्छेकभावशुद्धित्वरूप F
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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