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[ शाखवा स्त० ११ / २५ - १७
परोक्त दोषजाल निराचिकीर्षन्नाह
अनभ्युपगमाच्चे तादात्म्यादिसमुद्भवाः । न दोषा नो न चान्येऽपि तद्भेदाद्धेतुभेदतः | १५ |
अनभ्युपगमाच्च-अनङ्गीकरणाच्च इह = प्रकृतविचारे तादात्म्यादिसमुद्भवाः शब्दाऽर्थनचान्येऽपि= योस्तादात्म्य – तदुत्पत्तिविकल्पप्रभवाः न दोषाः - नानिष्टापादकाः नः अस्माकम् — परमार्थेकतानत्वे ' इत्यादिनोक्ताः । कुतः ? इत्याह- हेतुभेदतः कारणमेदेन तद्भेदात्-शब्दभेदात् ' अतीता-जातयोश्च विद्यमानवत् स्वकाले सत्त्वेन तत्र शब्दप्रवृतेर विरोधाच्च ' इत्यपि पूरणीयम् ॥ १५ ॥
उक्तमेवोपपादयति
वन्ध्येतरादिको भेदो रामादीनां यथैव हि । मृपा - सत्यादिभेदानां तद्वत्तद्धेतुभेदतः ||१६|| वन्ध्येतरादिकः = वन्ध्याऽवन्ध्यादिकः भेदः विशेषः यथैव हि रामादीनाम् = स्त्रीप्रभृतीनाम् सकललोकपतीतः, आदिभ्यां मत्कुणा - मस्कुण पुरुषादिप्रह:, मृषा - सत्यादिशब्दानाम् आदिना सत्यमृषा - ऽसत्यामृषापरिग्रहः, तद्वत् = वन्ध्येतरादिरामादिवत् ' मेवः' इत्यनुषज्यते; तद्धेतुभेदत्त:= मृषादिशब्दहेतुभेदात् सत्यादिभाषाद्रव्यवर्गणानां मेदाभ्युपगमादिति ॥ १६ ॥
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यतश्चैवम् अतः किम् ? इत्याहपरमार्थैकतानत्वेऽप्युक्तदोषोपवर्णनम् । प्रत्याख्यातं हि शब्दानामिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ १७॥
काfरका विद्ध हुई है। इसका अर्थ इसप्रकार है-शब्द और अर्थ में तादात्म्य एवं उत्पाचउत्पादकभाव आदि बात को लेकर जो दोष बताए गये हैं वे उन बातों को अङ्गीकार न करने से ही निरस्त हो जाते हैं । अन्य दोष भी, जैसे शब्द को वस्तुमात्र मिष्ठ मानने पर अपनी दृष्टि से अवस्तु में शब्द प्रयोग की अनुपपत्ति, एवं अतीत और अनागत वस्तु शब्दप्रयोग काल में न होने से अवस्तु होने के कारण उनमें शब्दप्रयोग की अनुपपत्ति आदि भी नहीं हो सकते, क्योंकि हेतुभेद से शब्दभेद होता है। इसी सन्दर्भ में यह पूरणीय है कि विद्यमान वस्तु के समान अतीत और अनागत भी अपने काल में वर्तमानरुप होने से वस्तु हो सकने के कारण उनमें शब्दप्रयोग होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है ।। १५ ।।
१६वीं कारिका में पूर्व कारिका के अर्थ का ही उपपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जिस प्रकार को आदि में वन्ध्या, अवन्ध्या आदि का भेद, एवं कारिका में प्रयुक्त पूर्व के दो 'आदि' शब्दों से क्रमशः चिवचित मत्कुण- अमत्कृण एवं पुरुष आदि का भेद लोकप्रसिद्ध है, उसी प्रकार मृत्रा और सत्य शब्दों का तथा कारिकागत तीसरे आदि शब्द से विक्षित सत्यमृषा एवं असत्यामृषा आदि शब्दों में भी भेद उनके हेतुभेद द्वारा हो सकता है। क्योंकि सत्य आदि भाषाद्रव्य की श्रमणाओं में भेद मान्य है ॥ १६ ॥
१७वीं कारिका में पूर्व कारिका के कथन का फलितार्थ बताया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है- शब्द को वस्तुमात्रनिष्ठ मानने पर जो यह दोष बताया गया है कि अन्य दर्शनों में अभ्युपगत त्रिगुणात्मक प्रकृति आदि जो अन्य दर्शन की दृष्टि से अवस्तु है उसमें