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________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विषेषन ] [ २६९ न चान्यतो विशिध्येतापि, इति केवलस्यैव वैशिष्टयमेष्टव्यम् ; एवं च सर्वत्र वैतत् , इति प्रतीतिवैशिष्ट्याभावे तद्वासनाबोधानुपपत्तिरिति । दोषान्तर माह-स्याच नाशो भवतामपि सहेतुकः= उत्पादहेतुव्यतिरिक्तहेतुसापेक्षः, इत्थं प्रकल्पने-' स्वहेतोरेवानुपकारिणमपि सहकारिणमवाप्य विशिष्टापरजननस्वभावमेतत् ' इत्येवं प्रकल्पने, एतदपि वक्तुं शक्यत एव 'अकिञ्चित्करमपि नाशहेतुमवाप्य निवृत्तिस्वभावमेतज्जातम् ' इतिविशिष्टोत्पादवत् सहेतुको नाश आपन्नः न्यायात् भवत्कल्पितयुक्तेः, अनिष्ट चैतद् भवतः । अतः अस्मात् कारणात् एतत् इत्थं स्वभावकल्पनम् न युक्तिमत् । एवं च स्वनीतितो विकल्पानुपपतर्वचनमात्रमेवैतद् यदुत—'दृश्य-बिकरप्यार्थकीकरणं नामा याह्यालम्बनस्य विकल्प्यस्य बाह्यालम्बनत्वेन प्रतिपत्तिः । इति । विरुद्धं च याह्याकाराया धियोऽबाबालम्बनत्वम् 'वासनायां वैशिष्टयं तु तस्कुर्वपत्वं स्वभावत एव ' इत्यपि निरस्तम् , तत्कुर्वद्रपस्यापि कादाचित्कत्वेन हेतुनियम्यत्वाच; अन्यथोत्पादस्याप्यतत्त्वापत्तेरिति दिग ॥ १४ ।। दोष यह भी है कि जैसे भाव कार्य की उत्पत्ति में उपादान से अतिरिक्त सहकारी कारण की अपेक्षा होती है उमीप्रकार भाव के नाश में भी भाव के उत्पादक कारण से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा प्रसक्त होगी। क्योंकि सहकारी द्वारा कोई उपकार न होने पर भी उसकी प्राप्ति होने पर उपादान कार! : ( उत्पासा। भारः हो, भिशिष्ट कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव प्राप्त करता है यह अब मानते हैं तो यह भी नियिवाद रूप से कहा जा सकता है कि नाश हेतु के अकिञ्चित्कर होने पर भी भाष कार्य का नारा उसे प्राप्त कर दी उत्पन्न होता है । फलतः बौद्ध की उक्त रीति द्वारा विशिष्ट भाव कार्य के समान उसके नाश की भी हेतृसापेक्षता अनिवार्य हो जाती हैं, जो उन्हें इश नहीं है। अतः उपादान में अनुपकारी सहकारी की अपेक्षा से कार्य को जन्म देने के स्वभाव की कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं है। उक्त स्थिति में अपनी ही युक्ति से विकल्प की उपपत्ति न होने के कारण यह सारहीन वचनोपन्यासमात्र ही है कि 'दृश्य और विकल्प्य अर्थों के एकीकरण का तात्पर्य यह है कि भवाय अर्थ को आलम्बन करने वाले विकल्प की बाह्य अर्थ को आरम्बन करने के रूप में प्रतीति होती है। इसके साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि बायाकार बुद्धि को अबान अर्थ का आलम्बनकारी मानना विरुद्ध है। और यदि इसे विरुद्ध न माना जायगा तो इसी के समान पीताकार बुद्धि के अपीतालम्बन हो जाने से पक बड़ी अव्यवस्था खड़ी हो जायगी। तथा, 'यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि शब्दजन्य विकरूप में पशिष्ट्य असविषयकत्व मूलक होता है और घासना में जो वैशिष्ट्रय होता है वह उससे उत्पाद्य कार्य का कुचंदूपत्य स्वरूप होता है। और वह किश्चिद्धतुक न होकर स्वाभाविक होता है।' यह कथन भी युक्तिहीन होने से निरस्त हो जाता है और वास्तव में किसी कार्य विशेष के कुर्वद्रूपत्व को स्वाभाषिक मानना उचित नहीं है, क्योंकि कुर्बद्पत्व के भी कादाविक होने से उसे भी हेतुसापेक्ष मानना अनिवार्य है, और सा न माना जायगा तो नाश के समान कार्य की उत्पत्ति भी अमात्त्विक हो जायगी |॥ १४ ॥ [ तादात्म्यादिविकल्पप्रयुक्त दोषों का निरसन ] पर-प्रतियादी द्वारा पूर्व में उदाथित दोषों का निराकरण करने के उद्देश्य से १५वीं
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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