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________________ २६८ ] शामवार्ताः सत० २१/१४ तदेवोपादानं तत्स्वभावम् यदन्यदप्यन्योदयकारीत्याशङ्कयाह-तत्स्वभाव विति-अनुपकारिणमपि सहकारिणमासाद्य विशिष्टापरजननस्वभायमेवेत्यर्थः तत्-उपादानम्, कुतः १८न काचिदत्र युक्तिः, वानमात्रमेतदिति भावः ॥ १३ ॥ 'स्वहेतोविशिष्टजननम्नभावस्यैवोत्पत्तिः । इत्याशयं परिहरतिनयुक्तवत्स्वहेतोस्तु स्याच नाशः सहेतुकः । इत्थं प्रकल्पने न्यायादत एतन्न युक्तिमत् ॥१४॥ नहि उक्तवत् = तुल्यकाला-ऽतुन्यकालसहकारिकृतविशेषाभाववत् स्वहेतोस्तु-स्वकारणादेव विशेषाऽभावे तत्स्वभावमुपादानं युक्तम् । तथाहि-नाम्यापि स्वहेतुरविशिष्टः सन्निदं विशिष्टं जनयेन् , आधान होता है ? इनमें प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उपादान में उसके मस्तिस्वकास में किसी अतिशय का आधान नहीं होता और विशेष भी अतिशय रूप ही है, भत पत्र उपादान के अस्तित्वकाल में उसमें विशेष के उदय की धात सङ्गत नहीं है । दूसरा विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है. क्योंकि उपादान के अस्तित्वकाल में सहकारी का अस्तित्व नहीं है और जिस समय में जिसका अस्तित्व ही नहीं है उस समय वह किसी का कोई उपकार ( किसी वस्तु में किसी विशेष का आधान,) कैसे कर सकता है ? यदि यह कहा जाय कि-'सहकारी से उपादान में किसी विशेष का आधान नहीं होता अपितु उपादान और सहकारी से किसी अन्य विशिष्ट का जन्म होता है और उस विशिष्ट से कार्यान्तर सम्पन्न होते हैं' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सहकारी की उपस्थिति से यदि उपादान में कोई वैशिष्ट्य नहीं होता तो उसमें अकेले किमी विशिष्ट कार्य को उत्पन्न न करने का स्वभाव जो पहले था वह सहकारी संनिधान होने पर भी ज्यों का स्यों बना रहता है। मतः सहकारीकाल में भी उससे किसी अन्य विशिष्ट का जन्म होना अमान्य है। यदि राह कहा जाय कि 'उपादान का यह स्वभाव है कि उसके सहकारी से अन्य विशिष्ट का जन्म होता है तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि अपना कोई उपकार न करने शाला सहकारी प्रान होने पर अन्य विशिष्ट को जन्म देना-उपादान का स्वभाव होता है' ऐसा भानने में कोई युक्ति नहीं है. इसलिये यह कथन युक्तिहीन शब्दोपन्यासमात्र है । १३ । [ उपादान के कारणों से उसमें विशेषाधान असंभव ] १८वीं कारिका में इस मान्यता का परिहार किया गया है कि 'उपादान अपने कारण से ही कार्यान्तर को उत्पन्न करने का विशिष्ट स्त्रमान प्राप्त करता है।' कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जैसे समानकालिका अथवा असमानकालिक सहकारी से उपादान में विशेष का आधान नहीं होता. वैसे ही उसके कारण से भी उसमें विशेष का आधान नहीं हो सकता। और उसमें विशेष का आधान नहीं होगा तो कार्यान्ता को उत्पन्न करने का स्वभाव भी उसे नहीं प्राप्त हो सकता। कहने का आशय यह है कि उपादान का हेतु भी स्वयं विशेषहीन होने पर विशेषयुक्त उपादान को जन्म नहीं दे सकता। और किसी अन्य से उसने विशेष का आधान होता नहीं। अत: केवल में ही कार्यान्तर के जन्मानुकूल वैशिष्टय मानना होगा और यही बात सभी पदार्थों में स्वीकार करनी होगी। तो फिर जय प्रतीति में कोई वैशिष्टय न होगा तो उससे ग्यारहवीं कारिका में उक्त बासनाबोध की उपपत्ति कैसे हो सकेगी? इसके अतिरिक्त दूसरा
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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