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________________ स्या. क. टीका-हिन्दीधिवेचन ] [ २५३ " न वाच्यं वाचकं वास्ति परमार्थेन किञ्चन । क्षणभनिए भावेषु व्यापकत्ववियोगतः ॥ १ ।। इति ।" सांवृतगम्यगमकमावनिषेधे तु न तस्य सामर्थ्यम्, काल्पनिकेपु महाश्वेतादिशब्दार्थेषु व्यभिचारात्, शब्दस्वलक्षणस्यापि तत्राऽव्यापकत्वेनाऽवाचकत्वात्, कल्पनातो बोधापलापस्य च कर्तुमशक्यस्यात् । तदुक्तम्-[त० सं० १०२३] " तस्मात् तव्यमेष्टव्यं प्रतिविम्यादि सांवृतम् । तेषु तव्यभिचारित्नं दुनिबारमतः स्थितम् " |॥ २ ॥ 'द्वयम्' इति वाच्यं वाचकं च । 'प्रतिविम्बादि' इत्यादिशब्देन निराकारज्ञानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किश्चित् प्रतिनियतमनर्थेऽर्थत्वाध्यबसायिरूपं गृहीतम् । 'तेषु ' कल्पनारचितेप्वर्थेषु । 'सत् ' इति तस्मात् तस्य वाऽवस्तुत्वस्य हेतोः, [ व्यभिचारित्वंसद्यभिचारित्वम् । यदणहवादे नानादिशःदा दोषण-विशेप्यभावस्य सामानाधिकरण्यस्य च लोकप्रसिद्धस्यापहवः स्यात् , नीलोत्पलादिशब्दानां शवलार्थाभिधायित्व एव तदुपपत्तेः;- “ नहि तत् केवलं नीलम् , न च केवलमुस्पलम्, समुदायाभिधेयत्वात् "-इत्यादिना तेषां शबलार्थाभिधायित्वस्योपपादितत्वात् ' इति; तदपि न, नीलपदेन पीसादिव्यावृत्तपदार्थाध्यवसायिनो अमर-कोकिला__ यदि पारमार्थिक अवस्तु से सांवृत योध्य-बोधकभाव का निषेध अभिमत हो तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि पारमार्थिक अपस्तुत्व में सांवृत बोध्य-बोधकभाव के अभाव की व्याप्ति नहीं है। यतः बाणभट की कादम्बरी में काल्पनिक खी-पुरुष पात्रों के लिए प्रयुक्त महाश्वेता आदि शब्द और उनके अर्थ में सांत बोध्य-बोधकभाव होने से पारमार्थिक अवस्तत्व में सांवृत बाध्य बोधक भाव के अभाव का श्यभिचार है ।--'कादम्बरी के महाश्वेता आदि से सम्बद्ध प्रकरण में केवल अर्थ अवस्तु है. शब्द तो पारमार्थिक ही है' यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि महाश्वेतर आदि शब्दों से अर्थयोधकाल में स्वलक्षण महाश्वेता आदि शब्द के न रहने से वह महाश्वेता आदि पात्रों का वाचक नहीं है। 'उक्त शब्दों से अर्थयोध होता ही नहीं' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि अनुभवसिद बोध का कल्पना से अपलाप नहीं किया जा सकता । तसंग्रह में कहा भी गया है कि 'स्वलक्षण शब्द का बलक्षण अर्थ में सक्षेतग्रह न होने से सतकाल में अनुभूत शब्द अर्थ के व्यवहारकाल में न होने से, वाच्य और धायक दोनों को सांवृत-काल्पनिक या प्रतिविम्यादि रूप मानना होगा । किं वा निगकारज्ञान के पक्ष में अर्थ रूप में गृहीत यत्किञ्चितस्यनिष्ठशान कप मानना होगा । अतः काल्पनिक अर्थ और शब्दों में गेध्य-बोधकमात्र के अभाव का व्यभिचार अनिवार्य है, किं वा अवस्तुत्व हेतु में 'योभ्यता और बोधकता के अभाव' का व्यभिचार अनिवार्य है। [लोकप्रसिद्ध विशेषण आदि भाव की उपपत्ति ] प्रस्तुत सन्दर्भ में एक बात यह भी कही गयी है कि-'अपोहबाद में नील और उन्पल शब्द के अर्थों में जो लोकमसिद्ध विशेषण-विशेष्यभाव तथा उन शब्दों में जो लोकप्रसिद्ध समान विभक्तिकत्व रूप सामामाधिकरण्य है, उसकी अनुपपत्ति होगी। क्योंकि नील और उत्पल शब्द द्वारा शबल का यानी उत्पल्यात्मक नील और नीलात्मक उत्पल का अभिधान मानने पर ही उसकी उपपति हो सकती है। जैसा कि “नील शब्द से वाच्य नील केवल नील ही नहीं है
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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