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[शासवा० स्त. १२/८ अनादिषु संशय्यमानरूपस्य, उत्पलपदेन च भमरादिभ्यो व्यवस्छिद्यानुत्पलव्यावृतवस्तुविषये व्यवस्थाप्यमानस्य परिनिश्चितात्मकस्य विकल्पप्रतिविम्बस्य जननात् परस्परं व्यवच्छेदकव्यवस्थाभावाद् विशेषण-विशेष्यभावस्य, द्वाभ्यां स्वनीलाऽनुत्पलव्यावृतकप्रतिबिम्बात्मकवस्तुप्रतिपादनादेकार्यवृत्तिया सामानाधिकरण्यस्याप्यविरोधात् । परपक्षे तु तद्व्यवस्था दुर्घटा, तथाहि-विधिशब्दार्थपझे नीलादिपदेन नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते उत्पलाऽजनादिविशेषसंशयानुपपत्तिः, सर्वात्मना नीलस्याभिहितत्वात् , एकस्यैकदेकप्रतिपत्रपेक्षया ज्ञाताऽज्ञातत्वविरोधात् । एवमुत्पलादिशब्दप्रयोगाकाङ्कापि न स्यात् , तदर्थस्य नीलशब्देनैव (च्या)कृतत्वात् । न च नीलशब्देनैकदेशाभिधानादयमदोषः एकस्य वस्तुनो देशानुपपत्तेः,
एवं उत्पल शब्द से ग्राच्य उत्पल केवल उत्पन्न ही नहीं है क्योंकि नील उत्पल समुदित रूप में नील और उत्पल शब्द के अभिधेय हैं । तसं. पञ्जिका इस प्रन्थ से यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि नील और उत्पल शब्द शबल अर्थ के घाचक है। किन्तु यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि नील पद से पीत आदि अनील अर्थों से भिन्न अर्थ का जो शान होता है उसके विषय में यह सन्देश उत्पन्न हो जाता है कि 'नील शब्द से उत्पान समीर पिन्न रूप में भ्रमर को विषय करता है या कोकिल को विषय करता है अथया अनम को विषय करता है किंवा किसी और अन्य नील अर्थ को विषय करता है ? ' नील पद के साथ प्रयुक्त उत्पल पद से अनुत्पललयावृत्त रूप में 'भ्रमर आदि उत्पल भिन्न नील से विलक्षण' उत्पल का बोध होता है फलतः उत्पल पद, नील पद जन्य झरन को भ्रमर आदि से भिन्न नील उत्पल में व्यवस्थित कर देता है। इस प्रकार उत्पल पद के सहयोग से नील पक्ष द्वारा परिनिश्चित स्वरूप नीलोत्पल का विकल्पात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। अतः नील और उत्पल दोनों के क्रम से नीलभिन्न उत्पल का और उत्पल भिन्न भ्रमर आदि का व्यवच्छेदक होने से दोनों में विशेषण-विशेष्य भाष उपपन्न हो सकता है। और नीलोत्पन्न रूप एक अर्थ के बोधन में मील उत्पल दोनों शब्दों का तारपर्य होने से दोनों में समान विभक्तिकस्त्र रूप सामानाधिकरण्य भी उपपन्न हो सकता है।
बौद्ध विरोधि पक्ष में अनुपपत्ति ] पर पक्ष में यानी शबल अर्थ के अभिधान पक्ष में उक्त व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि नील शब्द से नीलत्व रूप से नीलोत्पल का बोध होने पर उत्पल, अञ्जन आदि अर्थों के उक्त बोध का विषय होने में संशय महीं हो सकता, क्योंकि नील पद से नील अर्थ सर्वात्मना भभिक्ति हो जाता है। एक साता को एक वस्तु में एक ही समय हातस्व और अज्ञातत्व का संशय नहीं हो सकता। इस मत में उत्पल शब्द के प्रयोग की आकाङ्का भी नहीं रह जाती है क्योकि उत्पल शब्द का अर्थ भी नील शब्द से ही उस हो जाता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'नील शब्द से उसके अर्थ का पक देश ही अभिहित होता है। मतः उसके सर्वात्मना बोध के लिए उत्पल पद की अपेक्षा होती है' यह इसलिये शक्य नहीं है, कि नील पद का वाच्य अर्थ पक है और एक वस्तु में कोई देश नहीं होता, देश तो अनेक वस्तुओं में होता है। एकत्व अनेकत्व का तो परस्पर में विरोध है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि'नील और उत्पल शब्द से नीरत्व और उत्पनत्य विशिष्ट द्रव्य का भभिधाम होता है। और यह अभियान केवल नील पद था उत्पल पद से नहीं हो सकता। अतः नील पद की उत्पल. पर की और उत्पल पद को मील पद की सर्वमान्य आकार की अनुपपत्ति नहीं हो सकती'