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स्या. क. टीका-मदीपिवेधन )
[ २५५ एकत्वा-ऽनेकत्वयोविरोधात् । न च नीलोत्पलपदाभ्यां नीलत्वोत्पलत्वविशिष्टद्रव्याभिधानाद् नाकाला झनुपपत्तिः, नीलशब्देनाधिकृतद्व्यस्य सर्वात्मनाभिधाने उत्पलश्रतेवैयर्थ्यप्रसङ्गस्य तदवस्थत्वात् । अर्थान्तरसंशयव्यवच्छेदायोत्पलश्रुतेः सार्थक्ये च भ्रान्तिसमारोपिताकारव्यवच्छेदमात्रस्यैव प्रतिपादने विध्यर्थपक्षक्षतेः, तद्विषयकनिश्चयचेतसस्त ['द्विषयकनिश्चयने ततस्त ] विषयकाऽऽरोपचित्तप्रतिबन्धकत्वेन संशयविषयस्य शब्दार्थत्वाऽयोऽगाच्च, समानप्रकारकतादेः प्रतिबन्धकतायां निवेशे गौरवात् ।
यचोद्योतकरणोच्यते-“निरंशमेक वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतम् नांशेन ' इति विकल्पस्यैवानवतारः, सर्वशब्दस्यानेकार्थविषयत्वात्, एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात् " इति । तद् वाक्यार्थाऽपरिज्ञानविज़म्भितम्, 'नीलशब्देन सर्वात्मना तत् प्रकाशितम् ' इत्यत्र ‘सर्वात्मना' इत्यस्य 'स्वाभिघेयत्वव्याप्यस्वभाववत्त्वेन' इत्यर्थात्, कृत्स्नैकदेशविकल्पानुपपत्युद्धावनस्य तत्र वाक्टलमात्रत्वात् ;
क्योंकि नील शब्द से अधिकृत द्रव्य का सर्वात्मना अभिधान हो जाने से उत्पल शब्द की निरर्थकता ज्यों की त्यों बनी रहती है। यदि उत्पल भिन्न भ्रमर आदि नील अर्थों के संशय के निगकरणार्थ उत्पल पद के प्रयोग की सार्थकता मानी जायगी तो उत्पल पद से भ्रम द्वारा आरोपित आकार के निषेध मात्र का ही प्रतिपादन होने से उसके भावार्थकत्व की हानि होगी। और दूसरी बात यह है कि उक्त रूप से उत्पल पद के प्रयोग की सार्थकता भी सभी हो सकती है जब नील पद से बोध्य अर्थ अमर आदि के रूप में संदिग्ध हो, किन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि नील पद से उत्पन्न नीलनिश्चयात्मक चिस ही उत्पल पद के सहयोग से नीलोत्पल का निश्चायक होता है। अतः उस चिस से उसके विषयभूत नील में भ्रमर आदि रूपता के आरोपात्मक चिस का प्रतिबन्ध हो जायेगा। यदि यह कहा जाय कि-'उत्पल पद के समिधान से नीलनिश्चयात्मक चित्त नीलत्य रूप से ही नील का ग्राहक है अतः उससे नील में अमर भादि रूपता के आरोपात्मक चित्त का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि विरोधी वस्तुओं के समानप्रकारक शान में ही प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव होता है' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि समान प्रकारकत्व का प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव के गर्भ में निवेश करने में गौरव है।
[ उद्योतकर प्रयुक्त अनुपपत्ति का निरसन ] इस सन्दर्भ में उद्योतकर ने जो यह बात कही है कि-"निरंश एक व्यक्ति रूप वस्तु के विषय में इस विकल्प का उस्थान नहीं हो सकता कि 'नील आदि पद से वस्तु सर्वात्मना अभिहित होती है अंश-एक देश से नहीं ।'-क्योंकि 'सर्व' पद अनेकार्थक होने में एक वस्तु के विषय में 'सर्वात्मना' कथन मसंगत है। एवं वस्तु के निरश होने से यह अंश-एक देश से अभिहित नहीं होती' यह कथन भी असंगत है। यत: 'एक देश' शब्द अवयव में प्रयुक्त होता है किन्तु यह कथम बाक्यार्थ के अज्ञान का फल है। क्योंकि 'सर्वात्मना' शब्द से इस अर्य का प्रतिपादन अभिप्रेत है कि वस्तु का स्वभाय नील आदि पद के अभिधेयस्व का व्याप्य है। फलतः नील आदि पद से वस्तु का अभिधान होने पर वह किसी रूप में अनभिहित नहीं रह जाता। इसलिए उद्द्योतकर द्वारा उक्त ग्रन्थ से वस्तु के सम्बन्ध में कृत्त (=समप्र ) १-अधि कोऽयं पाठः पूर्वमुद्रिते किमुद्रित इव प्रतिभाति । न विद्यते हस्तादर्श ।