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[ शशस्त्रयाः स्त० ११८ प्रसिद्ध एवेत्युक्तानुपपत्तिरिति वाच्यम्, वाचकशब्दमजीकृत्यैवमुक्तेः, श्रोतृज्ञानावसेयस्य स्वलक्षणात्मनः शब्दस्याऽवाचकत्वात् , संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनष्टत्वात् । अगम्यगमकत्वं चैवमवस्तुनोः शब्दाऽर्थयोः स्यात् , स्वपुष्प-शशशृङ्गवत् । न च मेघाभावाद् वृष्टयभावपतीतेनायमेकान्त इति वाच्यम् , विविक्ताकाशाऽऽलोकाद्यात्मकत्वाद् मेघाघभावस्य ' इति तदप्येतेनैव निरस्तम् , याच्या पोहस्येव वाचकापोहस्यापि प्रतिबिम्बात्मकस्य भेदव्यवस्थाऽविरोधात् , वाच्यवाचकापोइयोबयि वस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वेन सांवृतवस्तुत्वादबस्तुत्वेनागम्यगमकत्वापादनस्याप्ययुक्तस्वात् । पारमार्थिकाऽवस्तुत्वेन पारमार्थिकगम्यगमकभावनिषेधे च सिद्धसाधनात् । तदुक्तम् [त०सं० १०८५] अभाष होगा। अर्थात् सामान्य अथवा विशेषधाची किसी पाचक शब्द के न होने से उसके वाच्य अपोह का भी अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता। यदि इस पर कहा जाय कि कारण भेद से और विरुद्ध धर्म के सम्बन्ध से सामान्य औपचाच मानों में भेद प्रसिद्ध है अत: वाचक शब्द के अभान से उसके प्रतिपाद्य अपोह्य के अस्तित्व के अभाव का कथन अनुपपन्न है' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वाचक शब्द से बोध्य अपोन के अभाव का जो कथन किया गया है वह वाचक शब्द के अभाष के आधार पर नहीं, किन्तु वाचक शब्द का अस्तिय मानते हुए उसके बोध्य अपोह का अभाव बताया गया है और उसका कारण यह है कि जिस स्वलक्षण शब्द को श्रोता सुनता है उससे अपोह्य का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सङ्केत सम्भव न होने से वह पाचक नहीं हो सकता, और जो शब्द सतकाल में अनुभूत होता है वह भी व्यवहारकाल से चिरपूर्व नए हो जाने से व्यवहारकाल में नहीं रहता । इस प्रकार फलतः शब्द और अर्थ के अवस्तुभूत होने से उनमें योध्य-योधक भाष ठीक उसी प्रकार असम्भव है जैसे माकाश पुष्प और शशशृङ्ग आदि शव और उनके अर्थ में है।
यदि यह कहा जाय कि-'अबस्तुभूत मेघाभाष से अघस्तुभूत बृष्टि के प्रभाव का शान होने से यह नियम असिद्ध है कि अवस्तु में बोध्य-बोधक भाष नहीं होता' -तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि मेघाभाव विविक्त आकाश रूप होने से और वृष्टि का अभाव विविक्त भालोंक रूप होने से अस्तु में ही बोध्य - बोधकभाय हो सकता है ।
[ शब्दप्रतिपाय अपोह के अभाव की आपत्ति निरस्त ] किन्तु यह बात भी इसलिप. निरस्त हो जाती है कि जैसे वाच्य अपोह अर्थप्रतिबिम्ब रूप होता है उसी प्रकार याचक अपोह भी अर्थप्रतिबिम्बरुप होता है। अत: ग्राम्य अपोहो के समान याचक अपोहों में भी भेद का कोई बाधक नहीं है। भ्रान्त जन वाच्य और वानक अपोहों को बाद्यवस्तु के रूप में ग्रहण करते हैं। अतः ये दोनों सांवृत वस्तु रूप होते हैं। अत: उन्अवस्तु कह कर उनमें बांध्य-बोधकभाष का असम्भव बताना युक्तिसङ्गत यदि पारमाधिकरूप में अबस्त होने के कारण उनमें पारमाधिक योध्य-बोधकमात्र का अभाव सिद्ध करना अभिमत हो तो यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थ में पारमार्थिक बोध्य-बोधकभाष के अमान्य होने से मिदसाधन है । तत्स्यसंग्रह में कहा भी गया है कि'परमार्थतः न तो कोई पाच्य है और न कोई पाचक ही है, क्योंकि शवात्मक और अर्थात्मक सभी भावों के क्षणभङ्गुर होने से संकेतकाल और व्यवहारकाल में व्यापक कोई भी भाव नहीं हो सकता और उसके अभाव में वाच्य-वाचक्रभाष की सम्भावना ही कैसे हो सकती है!'
गत नहीं है। और