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स्था. क.टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ २५१ अपोहाऽवलक्षण्ये गोरगोत्वप्रसकोऽपि वृथा, अश्वादिरूपागोवस्तुना गाँवस्तुनः स्वरूपतो बैलक्षण्यात् , अपोहभेद-सत्तयोश्च तथाविधवासनामूलविकल्पविषयत्वात् , कल्पितवृत्तान्तार्थाद्युपस्थित्यनुरोधेनाऽवस्तुन्यपि वासनोपगमात् । तदुक्तम्-[त० सं० १०८४ तः ८६ ] "अगोंतोविनिवृत्तिश्च गोविलक्षण इष्यते। भाव एव ततो नायं गौरगोमें प्रसध्यते ॥१॥ अवस्तुविषयेऽप्यस्ति चेतोमात्रनिनिर्मिता । विचित्रकल्पनाभेदरचितेष्विव वासना ॥२॥ ततश्च वासना भेदाद् भेदः सद्पतापि च । प्रकरप्यतेऽखपोहानां कश्पनारचितेष्विव ॥३॥"
। यदपि ‘एवं वाचकाभिमतस्याप्यपोह्यस्याभावः, वासनाभेदात् , वान्यापोहदाद् वा सामान्यविशेषवाचिशब्दभेदानुपपत्तेः । न च प्रत्यक्षत एव शब्दानां कारणमेदाद् विरुद्ध धर्माध्यासाच्च भेदः जिस रूप नहीं होता वह उसका अपोन कहा जाता है। अभाव भावात्मक नहीं होता. अतः अभाष भी भाव का अपोध है, फिर भी उसमें वस्तुरूपता नहीं है। वस्तु में प्रकृति और ईश्वर आदि जन्यत्व का निषेध करने पर प्रकृति आदि जन्यत्व' वस्तु नहीं हो जाती। अत: अप्सत् के निषेध्य होने पर भी उसमें भावत्व की आपत्ति का क्लेश नहीं हो सकता" ॥ ३ ।।
[गौ में अगोरूपता की आपत्ति का निरसन ] प्रस्तत सन्दर्भ में जो यह बात कही गयी है कि अपोहो में भेद न होने पर गो में भी अगोत्य की आपत्ति होगी' यह ठीक नहीं है। क्योंकि गो. अश्व आदि अगो से स्वरूपतः भित्र है । अतः स्वरूपमूलक भेद से गो की अगोरूपता बाधित हो जाएगी।
सच तो यह है कि अपोहभेद तथा गो और अगो की पृथक् स्वरूप सत्ता दोनों विकल्पबुद्धि के विषय हैं। और यह बुद्रि दोनों की वासना से उत्पन्न होती है। यह कहना कि'विकल्प का विषय अवस्तु होता है, और अवस्तु में वासना की उत्पत्ति नहीं होती। अतः उक्त दोनों की विकल्पबुद्धि को वासनाजन्य बताना असङ्गत है'-ठीक नहीं है, क्योंकि यदि कोई ध्यक्ति किसी को किसी कल्पित घटना की कहानी सुनाता है तो श्रोता को कालान्तर में उस घटना की स्मृति होती है. अतः इस स्मृति के अनुरोध से अवस्तु में भी बासना का जन्म होना युक्तिसिद्ध है।
तस्वसंप्रष्ट में कहा भी गया है कि "अगो से निवृस जो घिलक्षण गो की सिद्धि होती है वह स्वरूप से भी अगो से विलक्षण एक भाव ही है, अतः गो में भगोन्व की आपत्ति नहीं हो सकती ॥॥ जैसे विचित्र कल्पना से कल्पित कथा के विषयभूत अर्थों में बासना होती है उसी प्रकार चित्तमात्र-केवल विकल्प बुद्धि से निर्मित वासना अवस्तु में भी हो सकती है ॥२॥ इसलिए जैसे कलाना से रचित अर्थों में परस्पर भेद और विरक्षण सत्ता होती है उसी प्रकार अपोहों में भी परस्पर भेद और विलक्षण सत्ता, कल्पना के प्रभाव से हो सकती है, इस में कोई बाधा नहीं है ।। ३ ।।"
[शब्द प्रतिपाद्य अपोह न होने की आपत्ति ] प्रस्तुत संदर्भ में यह भी एक बात कही जाती है कि
वासदाभेद मौर वाच्य अपोह के भेद से सामान्यबाची 'गो' आदि शब्द और विशेषवाची धाधलेय' आदि शब्द का भेद अनुपपन्न होने से वाचक शम से प्रतिपाद्य अपोह का