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[ शानवा०ि स० १९४८ तत्रानाभासिकत्वस्य गौरवेणाऽप्रवेशात् । तदिदमुक्तम्- त० सं० १०६० स: ८२ ] " नामावोऽयोहते ह्येवं नाभावोऽभाव इत्ययम् । भावस्तु न तदात्मेति तस्येष्टेचम पोह्यता ॥१॥ यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोह्य उच्यते । न भावोऽभावरूपश्च तदपोहे न वस्तुता ॥२॥ प्रकृतीशादिजन्यत्वं वस्तूनां नेति चोदिते । प्रकृतीशादिजन्यत्वं न हि वस्तु प्रसिध्यति ॥३॥ नातोऽसतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कश्चन । [१०८३ पूर्वाधः ]
यदि तात्विक शब्दद्याच्यन्त्र के अभाव से व्यक्ति में अपोश्चत्य के अभाव का साधन किया जापगा सो सिद्धसाधन होगा क्योंकि पास्तव शवाच्यत्य के अभाव से वास्तव अपोधस्य के अभाव का ही साधन हो सकता है और बास्तव अपोनस्थ का अभाव व्यक्ति में सिद्ध है।
इसी प्रकार सामान्य में अपौत्व हेतु से जो वस्तुत्य का आपादन किया गया है उसमें भी दो दोष है [१] मपोहत्य हेतु सामान्य में असिद्ध है और [२] अपस्तुभूत अपोह भी अपोहा होने से अपोवस्व में वस्तुत्व की अनेकान्तिकता (व्यभिचार) भी है।
यदि यह कहा जाय कि 'अपोलो में भी वस्तुत्य है अतः व्यभिचार नहीं है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें धस्तत्वरूप साध्य के विपर्यय-अयस्तत्व के साधक हेतु के होने में कोई वाधक प्रमाण नहीं है। यत: विधिरूप से अपोयत्व होने पर भी अभावस्वरूप से अपोपत्व का अभाव है इसलिए अग्रस्तुत्व के साधक अनपोयत्व हेतु से सत्प्रतिपक्षित होने से अपोद्यत्व से वस्तुत्व की सिद्धि नहीं हो सकती ।
[प्रतियोगि में वस्तुत्व का नियम असिद्ध ] बौद्ध कहता है कि यह भी बोद्धव्य है कि जैसे जैनमत में जगत् में प्रकृति, ईश्वर आदि से जन्यत्य का निषेध करने पर भी प्रकृति, ईश्वर आदि (जन्यत्व) में वस्तुत्य की आपत्ति नहीं होती उसी प्रकार अपोवादी मत में अभाव ( अवस्तुभूत मामान्य के) अपोह्य होने पर भी उसमें घस्तुत्व की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतियोगिता वस्तुत्वनियत नहीं है। यह कहना कि- तदभाव का प्रतियोगित्व तदभावाभाषत्व रूप है अतः प्रतियोगी का वस्तुरूप होना पूत्र है'- ठीक नहीं है, क्योंकि तवभावाभावत्व के शरीर में प्रविष्ट तस्य अभावः' के अन्तर्गत तत् पद के उत्तर लगी हुयी मष्ठी के अर्थ का निर्वचन न हो सकने से प्रतियोगित्य का उक्त लक्षण मान्य नहीं हो सकता। अतः विशेषणत्व आदि की तरह प्रतियोगित्त्र भी काल्पनिक है। ऐसा स्वीकार करने में कोई बाधा भी नहीं है क्योंकि आभास मात्र से सिद्ध-केवल काल्पनिक के भी विधि-निषेध की उपपत्ति होती है। अभाषज्ञान में प्रतियोगिशाम कारण होने पर भी प्रतियोगी की प्रस्तुता नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि अनाभास प्रतियोगिज्ञान को कारण मानने पर अनाभासत्व का भी कारणतावच्छेदक कोटि में प्रवेश होने से गौरव होगा। अत: सामान्य रूप से आशाम-अनाभास साधारण प्रतियोगितान कोही कारण मानना उचित है। अतः आभासात्मक प्रतियोगिशान से ही अभावशान की उपपत्ति होने से उक्त कार्यकारण भाव के आधार पर प्रतियोगी को वस्तु नहीं सिद्ध किया जा सकता ।
तस्वसंग्रह में कहा भी गया है कि-'मभाय-प्रभाव से भिन्न है, इस प्रकार अभाव का व्यावर्तन नहीं होता, जिससे कि उसकी मभावरूपता मापदग्रस्त कही जा सके, किन्तु भाय अभाषात्मक न होने से, अर्थापति से अभाव में भाव की अपोग्रता-भावमिन्नता इष्ट है । जो