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स्या. क. टीका-हिन्दी विथेसन ] बुद्धौ येऽर्थाविवर्तन्ते तानाहाभ्यन्तरामयम् । निवृत्त्या च विशिष्टत्वमुक्तमेषामनन्तरम् ।।४||" इति
अगोव्यावृत्तेश्च वस्तुरूपाया एव विशेषणतयोपादानेन स्वाकारधिया विशेषानुरञ्जनस्याप्युपपत्तेः । न च पुरुधे दण्डस्येवेतरच्या वृत्तर्गवादेभेद एव विशेषणत्वोपपत्तिरिति वाच्यम् , अनुपका रकस्य विशेषणत्वाऽयोगाद् । उपकारकत्वस्य च युगपदऽयुगपत्कालभादयोः सर्वात्मना परिनिष्पत्त्यऽ साग्योभ्यामयोगात् , काल्पनिकस्य विशेषण-विशेप्यभावस्य कल्पनारचितं भेदमाश्रित्योपपत्तेः ।
__ 'व्यक्तीनामवाच्यत्वेनानपोह्यता' इत्यत्र च हेतुरेवासिद्धः, सांवृतस्य वाच्यत्वस्व तत्र प्रसिद्धे, सात्त्विकं तु वाच्यत्वबदपोत्वमपि न तत्रेति सिद्धसाध्यता । इत्थं च 'सामान्यस्याऽपोह्यत्वेन वस्तुता ' इत्यत्र हेतोरसिद्धत्वम् , अनैकान्तिकत्वं च । न चापोहेऽपि वस्तुता, साध्यचिपर्य यहेतोवधिकप्रमाणाभावात् , भावे विधिरूपतयाऽपोह्यत्वेऽप्यभावस्वेनाऽनपोह्यत्वात् , भवतामपि प्रकृतीश्वरादिजन्यत्वस्य निषेधेऽपि तस्य वस्तुत्वानापत्विदस्माकमपोह्यत्वेऽप्यभावस्य बस्तुत्वानापत्तेः, प्रतियोगित्वस्य वस्तुत्वाऽनियतत्वात् , तदभावाभावत्वादिरूपत्वे तस्य पप्ट्यर्थाद्यनिरुक्तेः, विशेषणस्वादिवत् कल्पना. मात्रनिर्मितत्वात् , आमाससिद्धस्यापि विधि-निषेधोपपत्तेः; अभावग्रहे प्रतियोगिग्रहस्य हेतुत्वेऽपि
(अथवा) जो अर्थ बुदि में विवर्त्तमान-प्रतिभासमान होते हैं, शब्द स्वभावतः पहले उन्हीं अभ्यन्तर अर्थों का अभिधान करता है। उनमें अर्थान्तरनिवृत्ति का वैशिष्य तो अन्यान्यत्वेन. इस प्रलोक से कह दिया है ।। ४ ।।
[ अर्थान्तर निवृत्तिरूप अपोह में विशेषणता की उपयत्ति ] भपोह के विरुव जो यह बात कही गयी है कि 'अर्थान्तरनिवृत्तिरूप अवस्तु विशेष्य का अनुराक न हो सकने के कारण विशेषण नहीं हो सकता है।' उसका उत्तर यह है कि अन्तरनिवृसि अपने आश्रयभूत वास्तष अर्थ से अभिन्न होने के कारण यस्तुरूप ही है। अत: उसके विशेषणत्व की उपपत्ति निर्वाध है। यदि यह कहा जाय कि-' जैसे दण्ड पुरुष से भिन्न होने के कारण पुरुष का विशेषण होता है, उसी प्रकार अगोच्यावृत्ति गो से भिन्न होने पर ही विशेषण हो सकती है। इसलिए उसे गो से भिन्न बताते हुप वस्तुभूत कहकर उसमें विशेषणत्व की उपपत्ति करना ठीक नहीं है। -तो यह समीचीन नहीं है क्योंकि जो विशेष्य पर कोई उपकार नहीं करता वह विशेषण नहीं हो सकता, और उपकार्य-उपकारकभात्र एक काल में होने वाले दो भाषों में उनकी स्वाभाविक परिनिम्पन्नता (पूर्णता) के कारण पवं भिन्न काल में होने वाले भायों में असामर्थ्य के कारण सम्भव नहीं है। अत: विशेषण-विशेष्यभाष को वहां काल्पनिक ही मानना होगा, और जब वह काल्पनिक है तब तो अगोनिवृत्ति भौर गो में भी, उनके काल्पनिक भेद के आधार पर निर्वाधरूप से यह मान्य हो सकता है ।
[ व्यक्ति में अपोछता की उपपत्ति ] अपोह के प्रतिकूल बातों के प्रतिपादन के सन्दर्भ में शव से भवाध्यत्व होने के कारण जो व्यक्ति की अपोलता का निषेध किया गया है यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यक्ति में शम्दाबामत्व हेतु इसलिए असिद्ध है, कि व्यक्ति में सांवृत-काल्पनिक शब्दवाच्यत्व सिम है और
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