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[ शात्रवार्था० स० १० / १६
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पर यह निष्कर्ष उपलब्ध होता है कि गवय में गवयपद वाच्यस्व की उपमिति तभी होती है। जब गोसादृश्यज्ञान से ' 'गोसटशी गययः इस अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान और गोसादृश्यविशिष्टपिण्ड का दर्शन होता है। इस निष्कर्ष के अनुसार उपमिति के उदय की प्रक्रिया निम्न प्रकार से हो सकती है ।
[ उपमितिज्ञान के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया का निष्कर्ष ]
ग्रामवासी पुरुष ग्राम में आये आरण्यक पुरुष के वाक्य से गोसदृश में गवयपदवाच्यत्व का ज्ञान प्राप्त कर जब अरण्य में जाता है और गवय का दर्शन करता है तब उसे गोसादृश्य का स्मरण हो जाता है क्योंकि गोसाइय के पूर्वानुभय से उत्पन्न गोसादृश्य विषयक संस्कार गवयदर्शन से प्रबुद्ध हो जाता है। गोसादृश्यस्मरण के बाद उसे 'गोसद्दशी गवय:' इस प्रकार गोसाइफिशिष्ट गवय पिण्ड का दर्शन होता है । इस दर्शन से उदबुद्ध संस्कार द्वारा अतिदेशवाक्य का स्मरण होकर उसके अर्थानुभव का उदय होने पर गोसदृश में गवयपदवाच्यत्र की उपमिति होती है। उक्त दर्शन और स्मृत अतिदेशवाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थानुभव दोनों गोसारश्य ज्ञान से उत्पन्न होने से व्यापारविधया और गोसादृश्य का ज्ञान करणविधया उक्त उपमिति के जनक होते हैं ।
इन प्रक्रिया के सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि जब गवयदर्शन से अतिदेशवाक्यार्थविषयक संस्कार उदबुद्ध है तब अतिदेशवाक्यार्थस्मरण के बाद गोसदृश गवयपिण्ड का दर्शन होकर उपमिति होती है, और जब गोसरशगवय के पिण्ड के दर्शन से उक्त संस्कार उदबुद्ध होता है । तब सटश पिण्डदर्शनोत्तर अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होता है। पर्व जब भतिदेशवाक्यार्थ के अनुभव के अनन्तर गोसदृशपिण्ड का दर्शन होता है, तब अतिदेशवाक्यार्थ की स्मृति अपेक्षित नहीं होती किन्तु अतिदेशवाक्यघटक गोसदृशपदार्थ की उपस्थितिरूप सादृश्य ज्ञान से उक्त वाक्यार्थानुभव और सहा पिण्डदर्शन इन दोनों द्वारा उपमिति का उदय होता है । और जब अतिदेशवाक्य की लिपि से अतिदेशवाक्य का ज्ञान एवं गवय के चित्र से गोसदृशपिण्ड का दर्शन होता है उस समय भी लिपि से अवगत अतिदेशवाक्य के घटक गोष्टापद से होनेवाले गोसदृशविषयक उपस्थितिरूप सादृश्यज्ञान से उक्त वाक्यार्थविषयक बोध और चित्रदर्शन से उत्पन्न गोसपिण्ड दर्शन के द्वारा उपमिति का जन्म होता है। इस प्रकार जब भी उपमिति का उदय होता है तब सदैव उपमिति के पूर्व सादृश्यज्ञानरूप उपमानप्रमाण एवं अतिदेशवाक्यार्थज्ञान तथा गोमदृश गजयपिण्ड का दर्शनरूप व्यापारश्य का सन्निधान अवश्य रहता है। यदि यह कहा जाय कि जैसे गोसदृशपिण्ड के दर्शन से गवयपदवाच्यत्य की प्रमा के अनुगंध से सादृश्यज्ञान को उपमिति का कारण माना जाता है । उसी प्रकार पशुओं में अधम उस कदम को धिक्कार है जिस की प्रीवा अत्यन्त लंबी होती है और जो कठोर कांटों का भक्षण करता है।' इस अतिदेशवाक्य से अत्यन्त दीर्घग्रीवा से युक्त कठोर कण्टक के भक्षणकर्त्ता अधमपशु में करमपद वाच्यत्त्र का ज्ञान होता है और उसके अनन्तर समस्त पशुओं से लक्षण ऐसे पशुण्डि का दर्शन होने पर उस में करमपश्वाच्यत्व की उपमिति होती है । अतः अन्य पशु के वैधशान को भी उपमिति कारणता प्राप्त है। किन्तु ऐसा मानने पर वैधर्म्यज्ञान से होनेवाली उपमिति के प्रति साधर्म्यज्ञान-सादृश्यज्ञान व्यभिचारी होने से पवं साहश्शान से होनेवाली उपमिति के प्रति वैधर्म्यज्ञान व्यभिचारी होने से साधर्म्यज्ञान और ज्ञान, दोनों में से एक को भी उपमिति का कारण नहीं माना जा सकता । अतः अति
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