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स्था. फ. टीका- हिन्दीविषेचन
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तस्मात् सादृश्यज्ञानमात्रं करणम्, व्यापारोऽतिदेशवाक्यार्थज्ञानम् सादृश्यविशिष्टपिण्डदर्शन च उभयत्रैव विशेषणीभूतसादृश्यज्ञानहेतुत्वात्' इति यौक्तिकाः । अथ 'त्रिक करभमतिदीर्घग्रीवं कठोरकष्टकाशिनमपसदं पशूनाम्' इत्यादिवाक्या थज्ञानादनन्तरमतिदीर्घग्रीवत्वादिरूपवत्पिण्डदर्शने करमपदवाच्यतोपमितेरत्र पचन्तर धर्म्यज्ञानमप्युपमितिहेतुः इति साधर्म्य - वैधर्म्यज्ञानयोरूपमितिहेतुत्वे व्यभिचार इति चेत् ? न, इदंस्थाद्यवच्छिन्ने गवयपदवाच्वत्योपमितौ गवयपदवाच्यत्वधर्मितावच्छेदकमकारकज्ञानत्वेन हेतुत्वात् । अस्तु वाऽनुमितिविशेषे परामर्शविशेषवदुपमितिविशेषे तज्ज्ञानानां हेतुत्वम्, अन्यथा तवदप्रामाण्यज्ञानाभावनिवेशानुपपत्तेः' इत्याहुः ।
[ युक्तिवादीयों के सामने दूसरे विद्वानों की आशंका ]
यदि यह कहा जाय कि अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान अतिदेशवाक्यार्थविषयकनिश्वयत्वरूप से उपमिति का कारण नहीं है किन्तु अतिदेशवाक्यार्थविषयक शाब्दबुद्धिरूप से ही कारण है, क्योंकि निश्चयत्वघटितरूप से कारण मानने की अपेक्षा शाब्दत्वघटितरूप से कारण मानने में लाभ है | अतः निभयत्य के अर्थसमाजग्रस्त होने से कार्यतावच्छेदक न हो सकने के कारण निश्रय तज्जन्यत्ववदितव्यापारत्य न होने पर भी कोई दोष नहीं है । तथा, लिपि और चित्र आदि में होनेवाले मानसबोध के स्थल में उपमिति की अनुपपत्तिप्रयुक्त दीप भी नहीं है, क्योंकि जहाँ अतिदेशवाक्य का श्रवण नहीं होता किन्तु अतिदेशवाक्य के लिपि का ज्ञान होता है वहाँ लिपि द्वारा लिपिकर्त्ता को अभिप्रेत शब्द का ज्ञान होकर अतिदेशवाक्यार्थ का शाब्दबोध होता है। गवं जहाँ गवय के चित्र से गोसदृश पिण्ड का मानसज्ञान होता है वहाँ भी 'यह गोसदृशविण्ड का चित्र है' इस प्रकार चित्र अंश में लौकिक और गोसदृश पिण्ड अंश में अलौकिक चाक्षुत्र दर्शन होता है, अत: उन्कस्थल में वाक्यज्ञानरूप करण वाक्यार्थानुभवरूप व्यापार तथा गोसदृश पिण्डदर्शनरूप सहकारी के सन्निधान से ही उपमिति का उदय होता है ।
[ दूसरे विद्वानों की शंका के प्रति युक्तिवादीयों का उत्तर ]
तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान होने पर भी अतिदेशवाक्यार्थ के निश्चयरूप व्यापार से ही उपमितिरूप कार्य की उत्पत्ति होती है। कहने का आशय यह है कि लिपि और चित्र का जहाँ दर्शन होता है यहाँ लिपि से शब्द की कल्पना की और चित्रदर्शन को गोसपिण्डविषयक मान श्रिना भी उपमिति का उदय आनुभविक है, एवं नित्य के कार्यतावच्छेदक न होने पर भी निश्चय में अनुभवत्यरूप से जन्यता होने से निश्चय भी व्यापार हो सकता है। अतः यह मानना युक्तिसंगत है कि साहय का ज्ञान मात्र करण है, उसे दर्शनात्मक अथवा अनुभवात्मक होना आवश्यक नहीं है । एवं अतिदेशवाक्यार्थ का ज्ञान और सादृश्य विशिष्टपिण्ड का दर्शन ये दोनों सादृश्यज्ञान का व्यापार है, क्योंकि दोनों साश्यविशिष्टविषयक हैं, अतः दोनों में सादृश्यरूप विशेषण का ज्ञान कारण है। इसलिये उन दोनों में सादृश्यज्ञान से जन्म होते हुये सादृश्यज्ञान से जन्य उपमिति का जनकत्वरूप व्यापार मंभव है ।
उपमिति के सम्बन्ध में मिश्र-नव्य-अन्य और युक्तिवादियों के मतों की चर्चा के आधार
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