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[ शाखषातां स्त० १० / १६
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अत्र 'सादृश्यादिविशिष्टपिण्डदर्शनं करणम्, उद्बोधकी भूतैतजन्यातिदेशवा क्या र्थस्मृतिर्व्यापारः ' इति मिश्राः । एतन्नये वाक्यार्थस्मृत्यव्यवहितोत्तरं सादृश्यविशिष्टपिण्डदर्शन उपमितिर्न स्यात्, इत्यतिदेशवाक्यार्थधीः करणम्, तदर्थस्मृतिर्व्यापारः सदृशपिण्डदर्शनं च सहकारि' इति नव्याः । 'एतन्नये ऽतिदेशवाक्यार्थानुभवोत्तरमेव सदृश पिण्डदर्शन उपमितिनं स्यादिति वाक्यज्ञानं करणम्, वाक्यार्थानुभवादिकं व्यापारः' इत्यन्ये । " अयमपि नयश्चित्रलेखादिना मानस बोधादुपमित्यमाथे शोभते । न च निश्चयत्वाऽप्रवेशला घयादतिदेशवाक्यार्थशाब्दत्वेनैव हेतुत्वात् प्रकृत आभिप्रायकशब्दकल्पनाद् नानुपपत्तिरिति वाच्यम्; तदर्थज्ञानसत्त्वेऽपि व्यापारभृततन्निश्चयादेव कार्यसंभवात् ।
[ मिश्र और नव्य नैयायिकों का मतभेद ]
उपमान प्रमाण के सम्बन्ध में मिश्र (पक्षधर मिश्र) का यह कहना है कि गोसादृश्य विशिष्टपिण्ड (पशु शरीर) का दर्शन उपमिति प्रमा का करण है एवं इस दर्शनरूप उदबोधक से उत्पन्न 'गोसदृशो गयय:' इस अतिदेश वाक्य के अर्थ का स्मरण व्यापार है और गोदश गवय में गवयपद का शक्तिग्रह, उन दोनों का उपमिति प्रमारूप फल हैं।
किन्तु इस मिश्र मत में, जब किसी अन्य उद्बोधक से उक्त अतिदेशवाक्य के अर्थ की स्मृति होगी. और उस के अव्यवहित उत्तरक्षण में गोसादृश्य विशिपिण्ड का दर्शन होगा: तब गोसदृश गय में गवयपदवाच्यत्व की उपमिति न हो सकेगी, क्योंकि उस ममय उपमिति-करण और उस के व्यापार के पौर्वापर्य का भंग है । अतः नव्य कुछ नैयायिकों का कहना है कि 'गोसदृशी गवयः इस अतिदेश वाक्यार्थ का शाब्दबोध उपमिति का करण है, और अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण उस का व्यापार हैं, एवं गोसपिण्ड का दर्शन उस स्मरण का सहकारी है | अतः उक्त स्मरण और उक्तदर्शन के पौर्वापर्य का कोई नियम न होने से दोनों स्थिति में वाक्यार्थस्मृति के पूर्व अथवा वाक्यार्थस्मृति के बाद उक्त दर्शन होने पर उपमिति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती ।
[ नव्यनैयायिक के साथ दूसरे विद्वानों का मतभेद ]
उक्त नव्य मल में जब 'गोमदृशी गवय:' इस अतिदेश वाक्य के अर्थानुभव के बाद तथा उस अर्थ के स्मरण के पूर्व गोसदपिण्ड का दर्शन होगा तत्र उपमिति का उदय न हो सकेगा क्योंकि उक्त वाक्यार्थ्यानुभव के उक्त वाक्यार्थस्मरणरूप व्यापार का उस काल में अभाव है । अत: अन्य किसी विद्वानों का कहना है कि उक्त अतिदेश वाक्य का ज्ञान ही करण है और उस वाक्य का अर्थानुभव अथवा अर्थस्मरण ही उस का व्यापार है तथा गोसदृश पिण्ड का दर्शन उस व्यापार का सहकारी है। किन्तु युक्ति के आधार पर निष्कर्ष का अभ्युपगम करनेवाले विज्ञानों का कहना है कि अन्य विद्वानों द्वारा उक्त मत भी तभी समीचीन हो सकता है जब 'गोसदृशी गवय:' इस वाक्य की लिपि से गोहा में गवयपदवाच्यत्व के एवं यय के चित्र से गोसदृशपिण्ड के मानस ज्ञान से गोसदृश में गवयपदवाच्यत्व की उपमिति न हो । किन्तु उक्त मानवज्ञान से भी उपमिति होती है जो अन्य विद्वानों के उक्त मत में नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त मानसज्ञान के समय न वाक्यज्ञान है न वाक्यार्थ का अनुभव अथवा स्मरण है तथा न गोसरशपिण्ड का दर्शन ही है ।