________________
स्पा. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
गत्यभावात् । न हि घट-मूतलयोरप्यभेदो भङ्गानामभिमत इति दिग् ।
यदपि 'कि, परसंतानवतिरागादिसाक्षात्करणावस्य रागादिमत्त्वमपि स्यात् ' ( पृ० १८- ५ ) इत्युक्तम् ; तदपि न चेतोहरम्, न हि रागादिसंवेदनमात्रं रागादिनिमित्तम्, किन्तु तथापरिणाम इति; अन्यथा स्वप्ने मद्यपानानुभवे, 'मद्यं पीतम्' इति शब्दार्थेनिबोधे वा श्रोत्रियस्य मद्यपत्वनिभितकप्रायश्चित्तप्रसङ्गात् । यदप्यभाणि - 'अपि च अतीतकालाचा कलितस्य वस्तुनः' (१८ - १ ) इत्यादि तदप्यसारम्, अतीतादेरतीतस्वादिनैव केवलज्ञानेन ग्रहणात्, स्पष्टतया प्रत्यक्षत्वोपपत्तेः, वर्तमानतायास्तत्राऽतन्त्रत्वात् ; अन्यथा वर्तमानार्थानुमित्यादावगतेः । न चातीता देरसत्त्वाद् न तद्ग्रह इति शङ्कनीयम्, वर्तमानस्य
उन दोनों शातताओं से
और भूत का अभेद तो शाततावादी भट्ट को भी मान्य नहीं है ।
[ ११५
में ज्ञानविषयता की उपपत्ति होती पर घट
[ परकीय रागादि के साक्षात्कार से कोई आपत्ति नहीं है ]
सर्वश के विरोध में जो यह बात कही गई है कि-' सर्वज्ञ को सर्वविषयक प्रत्यक्ष होने से उसे परसन्तान यानी उमस्थ जीव में विद्यमान राग आदि का भी साक्षात्कार अवश्य होगा | अतः सर्वश में अपना राग न होने पर भी अन्य राग से रागित्व की आपत्ति होगी 'वह ठीक नहीं है क्योंकि रागादि का संवेदन= साक्षात्कार रागादिमत्ता का निमित्त नहीं है किन्तु मगधात्मक परिणाम उसका निमित्त है। सर्वज्ञ यतः श्रीणघातीकर्मा होता है अतः रागादिरूप में उसका परिणाम न होने से उम में रागादिमत्ता की आपत्ति नहीं हो सकती और यदि तत्तव अर्थ के संवेदन को ही तत्तद्द अर्थ के सम्बन्ध का निम्ति माना जायगा तो स्वप्न में मद्यपान का अनुभव होने पर अथवा अन्य मनुष्य के ' मया मयं पीनम ' इस वाक्य से मपान का शब्द अनुभव होने पर श्रोत्रिय = वेदांत आचार सम्पन्न पुरुष में भी मलपान का सम्बन्ध हो जाने से उसे मद्यपान के पायश्चित की आपत्ति होगी । [ सर्वज्ञज्ञान भ्रान्त हो जाने की आपत्ति निरवकाश ]
सर्वशता के विरोध में जो एक बात यह कही गई कि ' सर्वश के प्रत्यक्ष को भतीत आदि पदार्थ का ग्राहक मानने पर उन पदार्थों के विषय में भी सर्वज्ञज्ञान की प्रत्यक्षरूपता की उपपत्ति के लिये सर्वज्ञ प्रत्यक्ष को वर्तमानत्वरूप से अतीतादि का ग्राहक मानने से उस में भ्रमन्स की आपत्ति होगी ' वह ठीक नहीं है क्योंकि केवलज्ञान अतीत आदि पदार्थों को अतीतत्व आदि रूप में ही ग्रहण करता है । उन पदार्थों में भी उस की प्रत्यक्षरूपता उन पदार्थों के स्पष्ट भान के कारण होती है। क्योंकि वर्तमानग्राहिता ज्ञान की प्रत्यक्षता का नियामक नहीं होती. अन्यथा वर्तमान अर्थ को ग्रहण करनेवाले अनुमिति आदि शानों में भी प्रत्यक्षरूपता की आपत्ति का परिहार न हो सकेगा ।
यदि यह कहा जाय कि अतीत आदि की सत्ता न होने से उस का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि सत्ताशून्य का ग्रहण मानने पर आकाशपुष्प आदि अनन्त सत्ताशून्यों के प्रत्यग्रहण की आपत्ति होगी तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह सत्य है कि जिस की सत्ता नहीं होती, प्रत्यक्ष द्वारा उस का ग्रहण नहीं होता, पर अतीत आदि सत्तानृत्य नहीं हैं किन्तु वे भी अपने काल में सत्तायुक्त हैं और यदि उन्हें अपने काल में सत्तायुक्त न माना जायगा