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________________ ११६] [शाखवार्ताः स्त० १०/१८ वर्तमानकालसंबन्धित्वेनेवातीतादेरपि स्वकालसंबन्धित्वेन सत्त्वात् । अन्यथा निखिलशून्यतामसनात् । एतेन 'अपि च यस्तुनः....' (१८-३) इत्याद्यपि निरस्तम् , यथाकालं वस्तुनो ध्वंस-प्रागभावभावेन युगपज्जातमृतव्यपदेशाऽनापत्तेः । यदपि 'किञ्च, सर्वज्ञकालेऽपि....'(१८-४) इत्यादि न्यगादिः तदपि न साधु, विषयाऽपरिज्ञाने विषयिणोऽप्यपरिज्ञानाभ्युपगमे सकलवेदार्थपरिज्ञानाऽनिश्चये सद्याख्यातार्थाश्रयणादमिहोत्रादौ स्वप्रवृत्तिव्याघातात् , व्याकरणादिसकलशास्त्रार्थाऽपरिज्ञाने व्यवहारिणां तदर्थज्ञतानिश्चयानुपपत्तेश्च | तो वर्तमान पदार्थ भी अपने काल में सप्तायुक्त न होगे। कपोंकि इस बात में कोई युक्ति नहीं है कि अतीत आदि अपने काल में सत्तायुक्त नहीं और धर्तमान अपने काल में सत्तायुक्त हो, फलसः सर्वशन्यता की प्रसक्ति होगी। [समानकाल में उत्पाद-व्यय के व्यवहार की आपति का परिहार ] सर्वशता के विरोध में जो यह बात कही गई कि-'जो सर्वश होगा वह एककाल में अतीत; अनागत, वर्तमान सभी पदार्थो का साक्षात्कार करेगा । फलतः उसे वस्तु के जन्म और मरण का पकसाथ ही ज्ञान होने से इस प्रकार के व्यवहार की आपत्ति होगी कि यह वस्तु जिस समय उत्पन्न हुई उसी समय नष्ट हुई, एवं यह मनुष्य जिस समय पैदा हुआ उसी समय मर गया-वह ठीक नहीं है क्योकि वस्तु का ध्वंस और प्रागभावाभाव-जन्म यथोसितकाल में होता है। पक ही काल में नहीं होता, सघश को वस्तु के जन्म और ध्वंस दोनों का ज्ञान पक समय में ही अवश्य होता है, पर जिस वस्तु का जिस काल में जन्म होता है उस काल में ही उस के जन्म का और जिस काल में ध्वंस होता है उस काल में ही उस के ध्वंस का शान होता है न कि जिस काल में घान पैदा होता है इस काल में उस का जन्म और यम होने का ज्ञान होता है । अतः उक्त आपत्ति नहीं हो मकती। [सर्वज्ञ के बिना भी सर्वज्ञ का ज्ञान शक्य ] सकता के विरोध में जो तूसरी बात यह कही गई कि 'सर्बम का अस्तित्व किमी काल में नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि मिस काल में सर्वज्ञ का अस्तित्व सघशादी को मान्य है उस काल में भी यह सर्वन है' इस प्रकार का ज्ञान किसी को नहीं होता क्योंकि सर्वशता का ज्ञान सर्वज्ञानाधीन है और सर्वशान किसी असवेश को सम्भव नहीं है तो फिर उस समय भी जब उस का अस्तित्व है यह किसी को ज्ञात नहीं हो सकता तो समयान्तर में जब स की मत्ता सर्वज्ञवादी की भी दृष्टि में नहीं हैं तब उस का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है क्योंकि जो किसी भी समय बात न हो सके उस के अस्तित्व को स्वीकार करने का आधार ही क्या रह जाता है ?' विचार करने पर यह बात भी ठीक नहीं जंचती, क्योंकि सर्घश के अस्तित्त्वकाल में उस समय विद्यमान लोगों को उस का शान होना सर्वथा सम्भव है। उस के ज्ञान की असम्भाव्यता में जो यह कारण बताया गया कि सर्व का शान न होने से संबंश का शान दुघट है' वह ठीक नहीं है क्योंकि विषय का ज्ञान न होने से यदि विषयी का शान न माना जायगा तो सकल घेदार्थ का ज्ञान न होने से सकल वेदार्थ का भी ज्ञान न होगा, फलतः उस के द्वारा किये गये वेदष्याख्यान में श्रद्धा न हो सकने से उस के ध्याख्यान के आधार पर अग्निहोत्र आदि वैदिक कमी में मनुष्य की प्रवृति का लोप हो जायगा । एवं व्याकरण आदि सकल
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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