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स्था. फ. टीका-हिन्दी विवेचन]
यदपि 'किच, नित्यसमाधानसंभवः' (१९-१) इत्याभिहितम् । तत्रापि न सुष्टववहितम् , मन्त्राविष्टकुमारिकावद् विकल्पाभावेऽपि केवलिनो वचनोपपत्तेः । 'धर्मविशेषहेतुकं मन्त्राविष्टकुमारिकावचनं न विकल्पमपेक्षत' इति चेत् ? केवलिवचनमपि किं न तथा, अर्थावबोधस्य तत एव सिद्धेः !; यदागमः
" केवलनाणेणत्थे गाउं जे तत्थ पन्नवणजोगे ।
ते भासइ तित्थयरो वइजोगसुअं हवइ सेसं ॥१॥" [आव०नि० ७८] इत्थं च रागाद्यभावे वचनादिप्रवृत्तिरपि व्याख्याता, तदमावेऽप्यदृष्टविशेषात् तदुपपत्तेः, तीर्थकरनामवेदनार्थत्वाद् भगवद्देशनायाः, "तं च कहं बेइज्जई अगिलाए धम्मदेसणाई हि "(आव०नि०७४३) शाओं के समूचे अर्थ का ज्ञान न होने से उन शाखों के अभिक्ष का भी शान न हो सकने के कारण 'अम्क ट्यामि महान वैयाकरण-सम्पूर्णव्याकरणचिद्' है एवं 'अमुक व्यक्ति महान नैयायिक सम्पूर्णन्यायशास्त्र का विज्ञान है' इन व्यवहारों की उपपत्ति न हो सकेगी । अतः विषयी के ज्ञान में विषयज्ञान की कारणता का परित्याग कर देना आवश्यक होने से, सबज्ञ
न होने पर सनान का मान सम्भव न होने मात्र से सबंश का शान होने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती।
[चनप्रयोग से समाधि का भंग नहीं होता] आगम की सम्रझमूलकता के विरुद्ध जो यह बात कही गई कि-'सर्वज्ञ कंवली सभी समय समाधिस्थ होता है, अत: उस के द्वारा पचनप्रयोग सम्भव न होने से वह 'आगम' का प्रणेता नहीं हो सकता-वह भी सावधानीपूर्वक नहीं कही गई क्योकि समाधि से भंग न होने पर भी उसके वचन की उपपत्ति हो सकती है । आशय यह है कि जैसे-मन्त्राचिन-मन्त्रद्वारा बाद्यव्यापार से बिग्त की हुई कुमारी कन्या उस अवस्था में भी मन्त्रप्रभाव से बचनप्रयोग करती है उसी प्रकार केवली समाधि-बाहव्यापार से मुख्य की दशा में भी अपने निरतिशय ज्ञानप्रभाव से वचनप्रयोग कर सकते हैं । यदि यह कहा जाय कि-'मन्त्राविष्ट कुमारी का पचन धर्मविशेष से उद्भूत होता है अतः वचनप्रयोग के लिये विकल्पबायव्यापारनिष्ठता की अपेक्षा नहीं होती तो यह बात केवली के वयनप्रयोग के सम्बन्ध में भी क्यों नहीं कही जा सकती ! क्योंकि केवली के उक्तरीति से प्रकट वचन से भी अर्थबोध होने में कोई बाधा नहीं है, असा कि आगम में कहा गया है कि
तीर्थकर केवलशान द्वारा समस्त पदार्थों को जान लेते हैं, उन में जो अभिलाप योग्य होते हैं, उन्हें बताने के लिये बचनप्रयोग करते हैं, यह वचनराशि वाग्योग ही होता है किन्तु शेष यानी उपचार से यह श्रुत-कहलाता है।
सर्वज्ञ द्वारा आगमप्रणयन की असम्भाव्यता बताने के सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि केवली में राग, द्वेष आदि का अभाव होता है, अतः वचन प्रयोग में उसकी प्रकृति नहीं हो सकती क्योंकि यमनप्रयोग में मनुष्य की प्रवृत्ति रागादिमूलक ही होती है। यह भी उचित नहीं है क्योंकि रागादि के अभाव में भी वचन प्रयोग में केवली की प्रवृत्ति उसके अदृष्टवश हो सकती है क्योंकि तिच्च कर्थ घेवते ? अम्लानया धर्मदेशनयेह-ऋषली का कर्मशेष उस की १. केवलज्ञानेनार्थान् ज्ञात्वा ये तत्र प्रशापन योग्याः । तान् भाषते तीर्थकरो वाग्योगश्रुतं भवति शेषम् ॥१॥ २. मुद्रितावश्यकनियुक्तौ पृ. १२ । ३. तच्च कथं घेद्यते अग्लानया धर्मदेशनयेह।