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[सवार्ता स्त. १०/१८ इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न चैवमदृष्टस्य दृष्टघातकत्वापत्तिः, दृष्टहेतुवैचित्र्यस्याप्यदृष्टनियम्यत्वात् । देशनावीजं भगवतो निरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छा न रागः, सामायिकचिद्विवर्तरूपत्वात् । अत एव "तो मुअइ नाणवुदि भविअजणवियोहणवाएं" [आव०नि० ८९] इत्यागमोक्तिरित्यपि वदन्ति । न चैवं कृतकृत्यत्वहानिः, क्षीणघातिकर्मकत्वेन कथञ्चित्कृतकृत्यत्वेऽपि जीवघातिकर्मविपाकभाजनतया सर्वथा तत्त्वाऽसिद्धेः 1 आह च भाष्यकृत“णेगतेण कयस्थो जेणोदिन्नं जिणिदनाम से । तदवंझफलं, तरस य खवणोवाओऽयमेव जओ ॥१॥" उत्कृष्ट धर्मदेशना से वेध होता है। इस आशय के आगमप्रमाण से यह सिद्ध है कि भगवान् का धर्मोपदेश उन के तीर्थकरनामकर्म का फल है।
[ दृष्टकारणविघात की आपत्ति का निरसन] यदि यह शङ्का की जाय कि 'अदृष्ट से सीधे कार्य का उत्पाद मानने पर दृष्टकारण का विघात होगा क्योंकि सर्वत्र सभी कार्य अदृष्ट से सीधे सम्पन्न हो जायेंगे तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दृष्ट कारणों का वैचित्र्य भी अष्ट्र से ही नियम्य है । कहने का आशय यह है कि यह देखा जाता है कि कभी जिस कार्य को करने में अनेक साधनों की अपेक्षा होती है यही कालान्तर में थोड़े ही साधनों से सम्पन्न हो जाता है। एवं जिस कार्य को करने के लिये कुछ लोग बडा प्रयत्न करता है उसे ही कुछ अन्य लोग छोड ही प्रयत्न से कर डालते हैं, तो कार्यों के उत्पादन के सम्बन्ध में जो यह वलय उन के तुओं में देखा जाता है वह कर्ता के अइष्टविचित्र्य में ही होता है । अत: किसी कार्य को स्थितिविशेष में सीधे अप्रजन्य मानने पर प हैतृभों के सर्वेथा लोप की प्रसक्ति नहीं हो सकती किन्तु कतिपय दृष्टहेतु ओं का त्यागमात्र सिद्ध होता है। अथवा पक हैत के बदले अन्य हेतु की अपेक्षा सिद्ध होती है। फलतः भगवान के उपदेश के विषय में यह कहा जा सकता है कि भगवान् जो उपदेश करते हैं वह राग से नहीं किन्तु अन्य जीवों के दुःख को दूर करने की नि:स्वार्थकामना से करते हैं। उन के उपदेश में राग की अपेक्षा नहीं होती किन्तु समभाषयुक्त चैतन्य के विवर्तरूप इच्छा होती है। यह चतन्य का परिणामरूप होने से केवली में भगवान् का उपदेश रागमृटक न होकर कृपामूलक है इस सत्य की पुष्टि एक आगमवचन से भी होती है जिस का अर्थ यह है कि-"केवली समन पदार्थ का साक्षात्कार प्राम कर लेने पर भग्यजनों के अवबोधनार्थ शान की वृष्टि करते हैं।"
यदि यह शङ्का हो कि-'केवली में कतत्व मानने पर उसकी कृतकृत्यता का व्याघात होगा, केवली होने पर भी यह अकृतार्थ रहेगा' तो इस का उत्तर यह है कि कंवली पूर्णरूप से कृतकृत्य नहीं ही होता, क्योंकि जो अघातीकर्म उसे कैवल्य अवस्था में भी जीवित रखते हैं उन के फल का भोग उसे करना ही होता है, अतः वह कृतकृत्य केवल उन घाती कर्मों के ही कार्यों के विषय में होता है जिन्हें वह चारित्र के प्रखर तेज से दाध कर चुका होता है। भाष्यकारने कहा भी है कि केवली एकांत रूप से कृतकार्य नहीं हो जाता क्योंकि तीर्थकर नाम कर्म का उदय प्रवर्त्तमान है, यह अपन्ध्यफळ होता है, उसके फल का अवरोध १. ततो भुञ्चति ज्ञानवृष्टिं भविफजनविबोधनार्थतया । २. मुद्रितावश्यकनियुक्तौ पू. १४ । ३. विशेषावश्यक भाध्ये गाथा-१९०३ | ४. नैकान्तेन कृतार्थो येनोदीणे जिनेन्द्रनाम तस्य । तदवन्ध्यफल, तस्य च क्षपणोपायोऽयमेव यतः॥१॥