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स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ ११९ ये तु जैनाभासाः परोक्तदोषभीता अक्षररूपाया वाचो रागनियतत्वाद् नियत्यैव मुखाद् मूनों निरिस्वरी ध्वनिरूपामेव पारमेश्वरों वाचमुपयन्ति; तेऽभिनिवेशलुप्तविवेकाः, ध्वनिरूपायास्तस्याः पतिसर्वज्ञं श्रोतृभाषापरिणामवदक्षरपरिणामाऽयोगात् , अव्यक्तकरूपतया सत्या-असत्यामृषादलद्वयन्निप्पादकबाम्योगद्वयबैयात् , " अद्धमागहीए भासाए भासंति" इति सूत्रविरोधात् ; नियत्यैव प्रयत्नं विना वचनोपपत्तौ च तयैव तद्विनापि परानुग्रहोपपत्तेः । ध्वनेरपि पौरुषेयतयाऽक्षररूपतया तुल्ययोगक्षेमस्वात् , अन्यथा बायमतप्रवेशाचेत्यन्यत्र बिस्तरः ।
___ यदप्युक्तम्-'न च रागादीनामावरणत्वमपि प्रसिद्धम् , कुच्यादीनामेव ह्यावारकत्वप्रसिद्धिः' (पृ० १९-५)इतिः तदपि न क्षोदक्षमम् , कुड्यादीनामेव स्वातन्त्र्येणावरणत्वाऽसिद्धेः, तद्व्यबहितानामप्यर्थानां नहीं होता, उसे निवृत्त करों का एक ही उपाय है, वह यह कि वह जगत के जीवों को आन्मोद्धार के मार्ग का उपदेश करे ।'
[निरक्षरभगवद्भाषा-वादी दिगंबर मत का परिहार] भगवान की भाषा के सम्बन्ध में कतिपय परोक्त दोष से भयभीत जनाभास-दिगम्बरों का मत है कि भगवान की भाषा अक्षरात्मक नहीं हो सकती क्योंकि वह रागादिनियत होती है और भगवान में गगादि का अभाव है। अतः भगवान की भाषा ध्वनिरूप है और यह नियनि. पंश ही मुख या मृणा से मिनीत होता है। व्याख्याकार के शम्दों में ऐसा कहनेवाले जनाभामों का विवेक आग्रहवश लुप्त है क्योंकि भगवान् की धनिरूप भाषा का प्रति सर्वज्ञ में श्रोतृभाषा परिणाम के समान अक्षरपरिणाम नहीं हो सकता तथा वह केवल अन्यक्तरूप होने से उस के सत्य तथा असत्याऽमृषा-ऐसे दो वाग्योग स्वीकार करना व्यर्थ हो जायेगा । तथा निरक्षरत्न की कल्पना 'भगवान् अर्धमागधी में भाषण करते है' इस सूत्रोक्ति से विरुद्र है। दूसरी बात यह है कि प्रयन्त के विना भी कंबल नियति से ही भगषदभाषा की उपपत्ति करने पर यह भी कहा जा सकेगा कि जैसे विना प्रयत्न के केवल नियति से ही भगवान की भाषा उपपन्न हो सकती है उसी प्रकार भाषा के बिना केवल नियति से ही परानुग्रह की भी उपपति हो सकती है । अतः भगवान के वचन का भी अभ्युपगम निरर्थक है। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि अक्षर के समान ध्वनि भी पौरुषेय है। दोनों का योगक्षेम एक जैसा है, अत: रागादि के अभाव में पुरुष यदि अक्षरमय भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता तो ध्वनिमय भाषा का भी प्रयोग नहीं कर सकता । यदि ऐसा न माना जायगा तो बाझमत का प्रवेश होगा अर्थात् जैस जनतर दर्शन मीमांसा में शब्द की नित्यता मान्य है, उसी प्रकार जैन दर्शन में भी शब्द नित्यता की मान्यता प्रसक्त होगी । इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र प्राप्य है।
[रागादि दोष में आवारकत्व का उपपादन] प्रस्तुत सन्दर्भ में एक बात यह कही गई थी कि 'माधारकत्व कुइय-दीवार आदि में ही प्रसिद्ध है और राग आदि में आवरणत्व असिद्ध है।' विचार करने पर यह बात भी ठीक नहीं अँचती, क्योंकि स्वतन्त्र रूप से कुश्य आदि में ही आवरणत्व असिद्ध है। यतः स्वप्ना
१ अर्धमागध्या भाषायां भाषन्ते ।