________________
१२० ]
[ शामवार्ताः स्त० २०१८ सत्यस्वमज्ञानेन स्वमदशायां, जामशायां च शब्दलिङ्गाऽक्षव्यापाराभावेऽपि 'वो भ्राता मे आगन्ता' इत्या द्याकारण प्रातिभेन च ग्रहणात् , सकलार्थग्रहणस्वभावे ज्ञाने प्रतिबिम्बस्वभाव आदर्श मलस्येव रागादीनामेवावरणत्वोचिस्यात् । अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमास्यन्तिकः क्षयः ? इति चेन् ? सम्यग्दर्शन-वैराग्यादीनां परमप्रकर्षण; 'यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्थापचयतारतम्य तस्य परमप्रकर्षे तदत्यन्तं क्षीयते, यथोप्णस्पर्शस्य परमप्रकर्ष शीतस्पर्शः' इति नियमात् । न च लड्न-उदकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्दर्शन-वैराग्यादेनं परमप्रकर्षप्राप्तिरिति शङ्कनीयम् , पूर्वप्रयत्नसाध्यस्य लङ्घनस्य व्यवस्थितत्वाभावेनोत्तरोत्तरप्रयत्नानामपरापरलङ्घनातिशयोत्पत्तौ व्यापाराऽयोगेन तत्परमप्रकर्षाऽसिद्धः, व्यायामानपनीत क्षेप्मानासादितपटुभावतयैव कायेन प्रा.यावलचयितव्यस्पालचनात् । न च विज्ञानस्यापि
वस्था में वीवार आदि से ठयवहित पदार्थ का भी सत्यस्यतात्मकजान से ग्रहध्य होता है । पत्र जाग्रद् अवस्था में भी शब्द, लिङ्ग तथा इन्द्रिय का व्यापार न होने पर भी प्रातिभज्ञाम से उस का ग्रहण होता है। यह ग्रहण उसी प्रकार होता है जैसे किसी कुमारी को कभी कभी 'कल ही ग भाई आयगा' इस प्रकार अपने दूरस्थ भाई के भाषी आगमन का ग्रहण हो जाता है। अतः यही मानना ही उचित है कि जैसे स्वभावतः प्रतिविम्य नाही दर्पण में मलआवरण होता है उसी प्रकार स्वभावतः समस्तपदार्थी को ग्रहण करने में सक्षम ज्ञान में गग आदि आवरण होता है।
यदि यह प्रश्न हो कि जब गग आदि आवारक है तो उस का आत्यन्तिक क्षय कसे होगा ? तो इस का उत्तर यह है कि सभ्यग्दर्शन पवं बैंगग्य आदि के परम प्रकर्ष से उस का आत्यन्तिक शय हो सकता है । 'उरणस्पर्श के परमप्रकर्ष से शीतस्पर्श के आन्यन्ति क क्षय' के दृष्टान्त से यह नियम सिद्ध है कि जिस के उत्कर्षतारतम्य से जिस के अपचय का तारतम्य होता है उस का परमप्रकर्ष होने पर उस का अत्यन्तक्षय होता है। इस नियम के अनुसार सम्यगदर्शन आदि का परमप्रकर्ष होने पर राग आदि का अत्यन्त भय होना सिद्ध हो सकता है क्योंकि सम्यगदर्शन आदि का ज्यों ज्यों उत्कर्ष होता है, राग आदि का त्यो त्यों अपचय देखा जाता है।
[ अभ्यास से परमप्रकर्षाभाव की शंका का परिहार] यदि यह शङ्का की जाय कि-जैसे पुनः पुनः अभ्यास करने पर भी लहन और उदकताप आदि का परमप्रकाष नहीं होता अर्थात् लखन का बरावर अभ्यास करने पर भी मनुष्य सारी भूमि का लङ्घन नहीं कर पाता एवं उदक को पुन: पुन: अग्नि से तप्त करने पर भी यह अग्नि नहीं बन जाता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन पवं बेराग्य आदि का अत्यन्तदीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करने पर भी परमप्रकर्ष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वप्रयत्न से उत्पन्न लवन स्थिर न होने से अन्यान्य सातिशय लङ्धन को उत्पन्न करने में । उत्तरोत्तर प्रयत्न का व्यापार नहीं हो पाता । इसीलिये लवन के अभ्यास से लबचन का तारतम्य होने पर भी परमप्रकर्ष नहीं होता। यदि यह पूछा जाय कि 'जब लंघनाभ्यास से कोई अतिशयाधान नहीं होता तो तीसरे-चौथे-पाँचधे लवन के प्रयत्न में जो कुछ अधिक लंघन होता है वही पहले प्रयत्न से क्यों नहीं होता तो उत्तर यह है कि उत्तरोत्तर लंघन प्रयत्न