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________________ स्था. क. टीका-हिन्दी विषवत | प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयस्य शीघ्रमेव विमाशादव्यवस्थिततयाऽपराभ्यासादन्यस्यैधातिशयवतो ज्ञानस्योत्पत्तेर्ने परमप्रकर्षसिद्धिरिति वाच्यम्; तत्र पूर्वाभ्यासजनित संस्कारस्योचरत्रानुवृत्तेः, अन्यथा शास्त्रपरावर्तनादिवैयर्थ्यं प्रसन्नात् । उदकता त्यतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयाद् नातितायमानमप्युदकमभिरूपतामासादयति, विज्ञानस्य त्वाश्रयोऽभ्यस्यमानेऽपि तस्मिन् न क्षयमुपयाति, इति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षताऽशक्या वक्तुम् !! न च ' यदुत्कर्षतारतम्यात्....' इत्यादिव्यास निम्बाद्योषधोपयोगप्रकर्पतारतम्यानुविधास्यपचयतारतम्यवता लेप्मणा व्यभिचारः, तत्र निम्बाद्योषधोपयोग परमप्रकर्षस्यैवाऽसिद्धेः, तदुपयोगेऽपि लेप्मपुष्टिकारणानामपि तदैवासेवनात् अन्यथौषधोप योगाधारस्यैव विनाशप्रसङ्गात् चिकित्साशास्त्रस्य धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तः, तत्प्रतिएक व्यायाम है जिस से श्लेम का दोष दूर होता है और देह को पटुता चपलता प्राप्त होती है। पहले प्रयत्न में श्लेष्म का दोष दूर नहीं होने से पटुताके अभाव में उतना लखन नहीं हो पाता जितना अग्रिम प्रयत्न से हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि विज्ञान की भी स्थिति तो डघन की ही स्थिति के समान है क्योंकि प्राक्तन अभ्यास से जो सातिशयज्ञान उत्पन्न होता है, शीघ्र विनाश हो जाने से पह भी स्थिर नहीं होता । अतः नये अभ्यास से नये ही सातिशयज्ञान की उत्पत्ति न होने से पूर्वजात विज्ञान का भी परमल नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वाभ्यासजनित विज्ञान से उत्पन्न संस्कार स्थिर रहता है अतः उस की सहायता से उत्तरोत्तर अभ्यास से संस्कार में अतिशयाधान द्वारा ज्ञान का परमप्रकर्ष हो सकता है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो शास्त्र के पुनः पुनः अध्ययन की कोई सार्थकता नहीं हो सकती । [ १२२ पुनः पुनः ताप करने पर भी उदकताप का जो परमप्रकर्ष नहीं होता उस दशन्त से भी ज्ञान के परमप्रकर्ष की अनुपपति की शङ्का करना उचित नहीं है क्योंकि उदक का अतिशय ताप करने पर ताप के आश्रय उदक का ही नाश हो जाता है तो फिर निराश्रयताप के परमोत्कर्ष की सम्भावना कैसे हो सकती है। पर विज्ञान की बात उस से अत्यन्त भिन्न है क्योंकि विज्ञान का अधिकाधिक अभ्यास होने पर भी उस के आश्रय का नाश नहीं होता अतः उस के उत्कर्ष को अव्यवस्थित कह कर उस के परमप्रकर्ष की अशक्यता कैसे बतायी जा सकती है ? ! [ उत्कर्ष - अपकर्ष के उक्त नियम के भंग की शङ्का का परिहार ] यदि यह शङ्का हो कि जिस के उत्कर्षतारतम्य से जिस के अपचय का तारतम्य होता हैं उस के परमप्रकर्ष से उस का अत्यन्त क्षय होता है' यह नियम लेप्मा कफ में व्यभि चरित है, क्योंकि निस्व आदि औषधों के सेवन से उत्कपेतारतम्य से कफ के अपचय का तारतम्य होने पर भी कफ का अत्यन्त क्षय नहीं होता अतः उक्त नियम के असिद्ध होने से उस के बल से सम्यग ज्ञानादि के परमकर्ष से रागादि के अत्यन्त क्षय की सिद्धि नहीं की जा सकती तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कफनाशक औषधियों के सेवनकाल में ऋफ के पोषक तत्वों का भी सेवन होते रहने से निम्य आदि औषधियों के सेवन का परमकर्ष कभी हो ही नहीं पाता । अन्यथा यदि कफ के नाशक औषधि का ही प्रकृष्ट सेवन होता रहे तो औषधसेवन के आधारभूत शरीर का ही नाश हो जाय | बात यह है कि चिकित्साशास्त्र १६
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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