SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याक० टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [ ४१ - एतेन 'शश्वत् परद्रव्यसंनिधाने तदर्शनादात्मदर्शनप्रतिरोधः' इत्यपि प्रलपितं निरस्तम् , कायेऽप्यस्य समानत्वात् । 'कायदर्शनं प्रतियोगिज्ञानीभूय ध्यायिनः स्वभिन्नत्वज्ञानोपकायेंवेति चेत् १ वस्त्रादिदर्शनमपि कि न तथा ? अपेक्षाकारणानां प्रधानकारणायत्तत्वात् , *"जे जत्तिा य हेऊ. भवस्स ते तचिया य मुक्खस्म" इति वचनप्रामाण्यात् । का सर्वदा सनिषान होगा, प्रप्तः वस्त्र आदि के रख-रखाव में उससे सभी समय प्रमाव होने की सम्भावना से उसका महान् अनिष्ट हो सकता है, अत: वस्त्रादिग्रहण यति के लिये सर्वथा अनुचित है। -इस कथन के उत्सर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त रोति से यति द्वारा वस्त्रादि ग्रहण का अनौचित्य बताने वालों को जैन सिद्धान्त के लेशमात्र का भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्रों में यह कहा गया है कि जो यति प्रमत्तगुणस्थान में विद्यमान होता है वह भी शुम योग को अपेक्षा अनारम्मो है ऐसा पागम में दिखाया गया है । दूसरी बात यह है कि जो विधिपूर्वक भोजन करता है उससे प्रभाद सम्भव भी नहीं है और तोसरी बात यह है कि प्रमाद 'प्रमत्सगुणस्थान पद' को प्रवृत्ति का निमित्त होता भी नहीं, किन्तु प्रमाव से उपलक्षित अध्यवसायविशेष ही उसका निमित्त होता है। कहने का आशय यह है कि उस यति को प्रमस्तगुणस्थानकवी नहीं कहा जाता-जिससे कोई प्रमाव बन जाय, अपि तु उसे कहा जाता है जो प्रमाद से उपलक्षित संयम के अध्यवसाय करे, प्रमादी होने पर भी ऐसी चेष्टा करे, जिससे जीवरक्षा प्रादि को बाघ न हो। यह कहना भी ठीक नहीं है कि वस्त्रादि सन्निधान होने से प्रभाव का उचय होगा, क्योंकि यदि यह सम्भव होगा तब तो वस्त्रादिसन्निधान से शरीरसन्निधान अत्यधिक सार्वकालिक होने से शरीर से भी प्रमाद का उदय अवश्य होगा और उस स्थिति में प्रमाव का कभी उफछेद ही न हो सकेगा। [ वस्त्रादि आत्मदर्शन के बाधक नहीं ] कुछ प्रतिवादियों का यह कहना है कि-'ग्रात्मा से भिन्न वस्त्र प्रावि का सर्वदा समिधान होने पर उसी का वर्शन होगा और उससे प्रात्मदर्शन में बाधा होगी'-किन्तु यह कथन नियुक्तिक होने से निरस्तप्राय प्रलाप मात्र है क्योंकि उक्त बात शरीर के सम्बन्ध में भी समान है । शरीर भी आत्मा से भिन्न है और सदा सन्निहित रहता है अतः उसके दर्शन से भी आत्मदर्शन का प्रतिरोध प्रसक्त हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि-शरीर का दर्शन प्रतियोगिज्ञानस्वरूप होने से ध्यानस्थ आत्मा में शरीरभेदज्ञान का साधक ही होगा न कि बाधक, तो वस्त्रादि का दर्शन भी उसी प्रकार वस्त्रादि से भिन्न प्रारमदर्शन में साधक क्यों न होगा, जबकि संसार के जितने कारण होते हैं उतने ही मोक्ष के भी कारण होते हैं इस तथ्य के प्रतिपादक प्राप्तधन से यह प्रमाणित है कि अपेक्षा कारण (यानो सहकारी कारण) प्रधान कारण के अधीन होते हैं और जब यह बात प्रमाणित है तब यह भी निविबाबरूप से मान्य है कि जिन वस्तुओं के अभेद भ्रम से आत्मा को भव प्राप्ति होती है उन सभी वस्तुओं का भेद दर्शन आपना के मोमलाभ में अपेक्षित है, इस लिये धर्म के उपकरण वस्त्रादि और धर्म का साधन शरीर ये दोनों ही आत्मदर्शन के लिये समानरूप से उपादेय हैं। * ये यावन्तश्च हेतबो भवस्य ते तावन्तश्च मोक्षस्म ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy