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[ शास्त्रवास्तिक ९ श्लो.४ ।
ये तु मूढाः संगिरन्ते-'असहिष्णोराहारकालेऽपि प्रमादसद्धावाद् न यथावदात्मभावना, वखादेस्तु सर्वदा संनिधाने सर्वदा प्रमादोदयाद् महदनिष्टम् इति-ते समयलेशमपि न शातचन्ता, प्रमसगुणस्थानबत्तिनामपि शुभयोग प्रतीत्यात्मानारम्भत्वादिप्रतिपादनात् , विधिना भुञानस्य प्रमादाभावात्, प्रमादोपलक्षिताध्यवसायविशेषस्येव प्रमत्तगुणस्थानपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् । शश्वद्वस्त्रादिसंनिधानेन प्रणादोदो शातिसं निहितेन कामेनापि नदुदये तदनुच्छेदप्रसङ्गात् ।
युक्त शरीर से भिन्न आत्मस्वरूप की भावना न हो सकेगी' किन्तु व्याख्याकार के कयनानुसार यह पाक्षेप भी निरस्त-प्राय है क्योंकि वस्त्रादियुक्त शरीर में स्वात्मा के अमेव-भ्रम का निरास आत्मा के सम्यग् वर्शन गुण से सम्पन्न हो जाता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो यतियों का प्राहार ग्रहण सो दिगम्बरों को भी मान्य है. तो फिर आहार ग्रहण काल में श्रेष्ठ साधजनों को जो आत्मस्वरूपको उच्च भावनाएं होती है वह कैसे हो सकेगी क्योंकि आहार ग्रहण काल में आहार ग्रहोता शरीर में स्वात्मा के अभेद-श्रम से आहार में साधु का स्वस्थ होना अनिवार्य है।
[आहार और वस्त्रादितुल्यरूप से अपरिग्रह ] आहार को प्रग्रन्थ सिद्ध करने के लिये दिगम्बर की ओर से यह कहा जा सकता है कि-संयमनिष्ठ यति तीनों काल अपने आपको परमार्थतः सभी पुद्गलों के आहरण से शून्य समझता है, उसे प्रशन-पान की कोई तृष्णा नहीं होतो, आत्मा के अनशन स्वभाव को मावना, जो एक अन्तरङ्ग तप है इस भावना की सिद्धि के लिये वह एषणावोषयुक्त आहार से भिन्न एषणादोष गुन्य आहार को ग्रहण करता है, अतः उसका आहार आपासत: आहार होने पर भी वस्तुत: अनाहार ही है। 'प्रवचनसार' में यही कहा गया है, जैसे 'अनशन जिसको आत्मा हो, प्रार्थनीय होने योग्य न होना जिसका स्वभाव हो, तथा एषणा बिना ही उपलब्ध हो सके, श्रमणयति ऐसे हो रुखे रसहोन भोजन के प्रतीच्छक-प्राहक होते हैं । एषणाहीन भोजन एषणायुक्त भोजन से भिन्न होता है. प्रतः उसे ग्रहण करने पाले श्रमणयति वास्तव में अनाहार होते हैं ।
इस कथन के प्रतिबन्दी उत्तर रूप में व्याख्याकार का कहना है कि प्राहार के सम्बन्ध में उक्त कथन के समान वस्त्रावि के सम्बन्ध में भी यह कथन हो सकता है कि संयमनिष्ठ पति समो समय अपने पापको सर प्रकार के व्रव्यों के परिग्रह से शून्य समझता है, अपरिग्रह यानी सर्वविध मूर्छा से शून्य होना यह यति का स्वभाष है, इस स्वभाव की भावना रूप अंतरंग तप की सिद्धि के लिये यति यदि वस्त्र प्रादि निर्दोष उपकरण का परिग्रह करता है तो उसका यह परिग्रह पाततः परिग्रह होने पर भी वस्तुतः अपरिग्रह क्यों नहीं हो सकता?
[वस्त्रादि के धारण से प्रमाद की शंका का निरयन ] जो विगम्बरानुयायो मोहग्रस्त है, उनका यह कहना है कि-'यह बात ठीक है कि जो यति प्रसहिष्णु होता है, मुख को सहन नहीं कर सकता, आहारकाल में उससे प्रमाव यानी जोधरक्षा में असावधानी इत्यादि हो सकता है, किन्तु यति को वस्त्रादि ग्रहण की अनुमति होने पर उसे वस्त्रावि