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स्वा० क० टीका एवं हिन्दोविवेचन ]
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यतिप्रतिगृहीतवस्त्रादौ धर्म्य विनियोगयोग्यतारूपस्यातृष्णामूलस्य स्वाश्रयभिन्नाभिन्नस्य स्ववपर्यायस्य सत्वेऽपि ग्रन्थव्यवहार निषन्धनकृष्णा मूलप्रतिग्रहादिजन्य स्वत्व पर्यायाभावात् । अत एव 'स्वपरिभोग्यमिदं चत्रादि' इति यतीनां भाषा, न तु 'स्वमेवेदम्' इति । न चेदेवम्, आहारेणापि स्वीयेनैव साधपिकं प्रति दानाद्युपग्रहसंभवाद् धर्मलाभपूर्वकप्रतिग्रहेण तत्र स्वत्वोत्पत्तेश्व कथं नाहारस्यापि ग्रन्थत्वम् १ ! एतेन 'स्वाभेदग्रमवलोपनीतस्वत्वावयवस्त्रादिसत्त्वे कथमात्मस्वरूपभावना ?' इत्यप्यपास्तम्, स्वाभेद भ्रमस्य सम्यग्दर्शनेनैव नाशाद, अन्यथाऽऽहारकालेऽपि कथं सुसाधूनां तत्साम्राज्यम् १ |
अथ संयतस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यतयाऽन्तरङ्गतपःस्वरूपानशनस्वभाव भावनासिद्धय एपणा दोषशून्यान्य मैक्ष्याचरणेऽपि साक्षादनाहारता तदुक्तं प्रवचनसारे
*"जस्स अणसणमप्पा तं पितओ तपच्छिगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणे सण मध ते समणा अणाहारा ।। १ ।। [३-२७ ] इति चेत् ? नन्वेवमस्य सर्वकालमेव सकलद्रव्य परिग्रह शून्यमात्मानमवबुध्यमानस्य सकल मूर्च्छारहिततयाऽन्तरङ्गतपःस्वरूपाऽपरिग्रहस्वभावभावनाप्रसिद्धये दोषशून्यपकरणं प्रतिsarso कुतो न साक्षादपरिग्रहता १ ।
| तृष्णाशून्य स्ववपर्याय अबाधक - श्वेताम्बर ]
faraरों के इस आक्षेप के उसर में व्याख्याकार का कहना है कि यति प्रतिगृहीत वस्त्र आदि में जो यति का स्वस्वरूप पर्याय होता है यह स्वाश्रय वस्त्र आदि से भिन्नाभिन्न होता है, तृष्णामूलक [नहीं होता । तथा जो धर्मसम्मतविनियोगयोग्यतारूप होता है, वह 'ग्रन्थ' व्यवहार का साधक नहीं होता, किन्तु जो स्वश्व पर्याय तृष्णामूलक प्रतिग्रह से जन्य होता है वही 'ग्रन्थ' व्यवहार का मूल होता है, अतः यति द्वारा प्रतिगृहीत वस्त्र आदि यति के स्वस्थ का आश्रय होने पर भी यति का 'ग्रन्थ' नहीं हो सकता, इसीलिये अपने वस्त्र आदि में 'यह वस्त्रादि हमारा स्वभोग्य है' इस भाषा का प्रयोग करते हैं, 'यह हमारा स्व है हमारी सम्पत्ति है इस भाषा का प्रयोग नहीं करते । यदि पतियों के स्वश्व में अथतियों के स्वत्व से यह वैलक्षण्य नहीं माना जायगा तो दिगम्बर को यह प्रश्न है कि यति द्वारा सधर्मा यति को अपने बाहार का दान करने पर तथा श्रावक को धमलाभ का आशीर्वाद देकर आहार प्रतिग्रह करने से आहार में यति के स्वत्व की उत्पति होने से आहार भी यति का ग्रन्थ क्यों न होगा ?
दिगम्बर जैनों का एक और आक्षेप है- वह यह कि जब यति वस्त्रादि धारण करेगा तो उसमें उसके धारक शरीर में स्वात्मा के अभेदभ्रम से यति का स्वस्व होगा अतः यति को वस्त्रादि* यस्यानशनमात्मा तदपि ततस्तत्प्रतीच्छकाः श्रमणाः । अन्यद् भैक्ष्यमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः ॥ १ ॥