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[शास्त्रवार्ता स्त० श्लो०४
विषयत्वरूप है किन्तु विनियोग के ऐसे उपायों की योग्यता रूप है, जो शास्त्रों में निषिद्ध नहीं हैं, अथवा जिन उपायों के अभाव में वस्तु का विनियोग करने में प्रत्यवाय होता है, उन उपायों में से किसी अन्यतम उपाय को योग्यतारूप है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह स्वत्व भी अन्योन्याश्रयप्रस्त है, जैसे प्रथम स्वत्व के ज्ञान में अपेक्षित है 'विनियोग के अमुक उपाय शास्त्र निषिद्ध नहीं हैं। यह ज्ञान और इस कान में अपेक्षित हैं 'चौर्याविमिः परस्ट नादवीत='चोर्यादि से परकीय धन ग्रहण न करें-जैसे वाक्यों से होने वाले शास्त्र-निषिद्ध उपायरूप प्रतियोगी का ज्ञान । इसी प्रकार द्वितीय स्वत्व के ज्ञान से अपेक्षित है 'प्रमुक उपायों के अभाव में विनियोग करने से प्रत्यवाय होता है। यह जान और इस ज्ञान में अपेक्षित है 'परस्त्रं नावचीत' इत्यादि निषेधक वाक्यों का अर्थज्ञान और इन धाक्यों के अर्थज्ञान में अपेक्षित है इन वाक्यों में प्रविष्ट स्व शब्द के स्वत्वरूप अर्थ का ज्ञान, प्रतः स्वरष ज्ञान और उसके उपायभूत ज्ञान में परस्परसापेक्षता होने के कारण अन्योन्याश्रय स्पष्ट है ।
[विभिन्न प्रकार के स्वत्व-पक्ष में अनुगत व्यवहार अनुपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-सब वस्तुबों में स्वत्व एकरूप नहीं है किन्तु विभिन्न साधनों से प्राप्त वस्तुषों में विभिन्नरूप है, जैसे क्रोत वस्तु में विक्रयप्राममावविशिष्ट क्रयनाशरूप है और प्रतिग्रहप्राप्त वस्तु में दानादिप्रागभावविशिष्ट प्रतिग्रहध्वंसरूप है। आशय यह है कि जो वस्तु क्रय से अजित की जाली है, जयकर्ता को उस वस्तु के विक्रय का अधिकार हो जाने से क्रयकर्ता द्वारा उस वस्तु के सम्भावित विक्रय का 'यह वस्तु मूल्यग्रहण से मेरो न होकर मूल्यवासा की हो इस इच्छारूप विक्रय का प्रागभाव रहता है तथा 'यह वस्तु मेरे द्वारा प्रदत्तमूल्य का ग्रहण करने से मूल्यग्रहोता को न होकर मेरे मूल्यदान से मेरी हो इस इच्छारूप क्रय का, विक्रयकर्ता द्वारा मूल्य ग्रहण होते ही नाश होने से क्रयनाश रहता है, इसलिये 'विक्रयप्रागभावविशिष्टकयनाश' ही स्वत्व है जो 'स्वप्रतियोगीचछाविषयस्व' सम्बन्ध से कोसवस्तु में रहता है । इसी प्रकार जो वस्तु प्रतिग्रह से प्रजित की जाती है, प्रतिग्रहकर्ता को उस वस्तु के दान आदि का अधिकार हो जाने से उस वस्तु में प्रतिग्रहकर्ता द्वारा सम्भावित वान प्राधि का 'यह वस्तु मेरी न होकर अमुक को हो' इस प्रकार को इच्छारूप दान आदि का प्रभाव रहता है तथा 'यह वस्तु दाता की इच्छा के अनुसार दाता की न होकर मेरी हो' इस इचछारूप प्रतिग्रह का उसके तीसरे क्षण में नाश होने से प्रतिग्रहध्यस रहता है, इसलिये 'दानादिप्रागभावविशिष्टप्रतिग्रहध्वंस' हो स्वत्व है, जो 'स्वप्रतियोगीच्छाविषयत्व' सम्बन्ध से प्रतिग्रहीत वस्तु में रहता है।--
किन्तु स्वत्व का यह रूप भी ठीक नहीं है क्योंकि इसे स्वीकार करने पर विभिन्न उपायों से प्राप्त होने वाली वस्तुओं में 'इ' मदीयं-यह मेरा है, इसमें मेरा 'स्वत्व' है इस प्रकार का जो ग्रनुगत ध्यवहार सर्वमान्य है, उसका उच्छेद हो जायमा और यदि किसी अतिरिक्त षम द्वारा विभिन्न प्रकार के स्वत्वों का अनुगमकर स्वत्व के अनुगत व्यवहार को उपपन्न करने की चेष्टा की जायगी तो उसकी अपेक्षा स्वरष को ही प्रतिरिक्त पर्यायविशेषरूप मान लेना उचित होगा, और इस प्रकार जब प्रतिरिक्त स्वत्व पर्याय की सिद्धि अनिवार्य है-तब जसे स्वनिरूपित स्वत्य सम्बन्ध से स्व सम्बन्धी होने से सुपर्ण आदि स्व का ग्रन्थ होता है वैसे हो उक्त सम्बन्ध से यति आदि के सम्बन्धी वस्त्र आदि को भी यति आदि का ग्रन्थ होना अनिवार्य है।