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स्वा० क० टोका एवं हिन्दोविवेचन ]
विनियोगोपाय योग्यत्वम् यावदुपायव्यतिरेके विनियोगे प्रत्यवायस्तावदन्यतमत्वं वा तत् प्रत्यवायप्रतिपादकस्य शास्त्रस्य "परस्वं नाददीत " इत्यादेः स्वत्वानवगमेऽप्रतीतेः । न च कचिद् विक्रयप्रागभावविशिष्टः क्रयविनाशः क्वचिद् दानादिप्रागभावविशिष्टः प्रतिग्रहवं सश्चेत्येवमननुगतं स्वत्वं वाच्यम्; अनुगतव्यवहारोच्छेदात, अतिरिक्तधर्मेण तावदनुगमे चातिरिक्तस्वत्वपर्यायस्यैव वक्तुमुचितत्वात् । तथा च स्वनिरूपितवत्ववच्त्वेनैव वस्त्रादेः कनकादिवद् ग्रन्थत्वं व्यवतिष्ठत इति चेत् ? न,
होकर बौर्य, अचौर्य आदि की व्यवस्था होतो है । जैसे, जिस वस्तु में जिस व्यक्ति का स्वस्थ नहीं होता, अन्य का स्वस्थ होता है वह वस्तु परकीय होती है और परकीय वस्तु का ग्रहण धौर्य है, एवं जिस वस्तु में जिस व्यक्ति का स्वत्व होता है वह वस्तु उस व्यक्ति को स्वकीय होती है, स्वकीय वस्तु का प्रहण प्रचौर्य है।
[ मूर्छाविपयत्व या
याद्युपाय विषयत्वरूप स्वत्व अमान्य ]
afa यह कहा जाय कि स्वश्व क्रय प्रावि से उत्पाद्य विषयत्य रूप है, अर्थात् जिस वस्तु में जिस व्यक्ति की मूर्च्छा व्यक्ति की स्वकीय वस्तु होती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मनुष्य ने क्रय, वितृमरण, प्रतिग्रह आदि द्वारा नहीं प्राप्त किया है वस्तु भी उसकी स्वकीय वस्तु हो जायगी और उस वस्तु का अन्य मनुष्य को दान करने पर दान देने खाले को प्रत्यवाय की प्रसक्ति न होगी। यदि यह कहा जाय कि इस दोष के कारण स्वश्व को सूर्च्छा विषयत्वरूप मानना सम्भव न होने पर भी उसे क्रय आदि से अन्य पर्यायरूप मानने की आव reat नहीं है क्योंकि उसे क्रय प्रादि उपाय का विषयत्वरूप मान लेने में कोई बाधा नहीं है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रय और प्रतिग्रह आदि इच्छारूप है, जैसे यह वस्तु अमुक व्यक्ति का न होकर अमुक मूल्य से मेरी हो' यह इच्छा ही क्रम है, और 'यह वस्तु अमुक मूल्य ग्रहण से मेरी न होकर मूल्यदाता की हो' यह इच्छा विक्रय है एवं यह वस्तु दाता की इच्छा के अनुसार मेरी हो' यह इच्छा प्रतिग्रह है । ग्रतः क्रीत, प्रतिगृहीत आदि वस्तु क्रय, प्रतिग्रह आदि का विषय तो हो सकती है किन्तु पितृमरण निर्विषयक है, अतः पंक घन में पुत्र का जो स्वस्व होता है, उसे पितृमरणविषयत्वरूप नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त दूसरा वोष यह है कि स्वत्व आदि को क्रयादिविषयत्यरूप मानने पर अन्योन्याश्रय होगा। क्योंकि क्रय आदि के स्वरूप में स्वश्व का प्रवेश है, जैसे 'यह वस्तु अमुक व्यक्ति का न होकर मूल्य प्रदान से मेरी हो' इसका अर्थ है 'अमुक व्यक्ति के स्वस्य को निवृसि होकर मेरे स्वस्थ की उत्पति हो' इस प्रकार क्रय स्वश्व से घटित है, अतः स्वत्व को क्रयादिविषयरूप मानने पर स्वश्व के ज्ञान में क्रमावि ज्ञान की और क्रयादिज्ञान में स्वत्वज्ञान की अपेक्षा होने से न्याय स्पष्ट है ।
[ नये ढंग से स्वत्व के निर्वचन में भी अन्योन्याश्रय ]
यदि यह कहा जाय कि स्वस्थ न पर्यायविशेष हैं, न मूर्च्छाविषयत्वरूप है और न ऋपादि
कोई पर्याय नहीं है किन्तु मूर्च्छा प्रासक्ति होती है, वह वस्तु उस मानने पर जिस वस्तु को जिस किन्तु उसमें उसको मूर्च्छा है वह