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________________ ३६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. ४ एवं च 'वस्त्रादिकं ग्रन्थः, मू हेतुत्वात् , कनकादिवत्' इत्यनुमानमपि जाल्माना परेषां प्रतिक्षिप्तम् । प्रन्थत्वं यदि मृहेतुत्वम् , तदा हेतोः साध्याऽविशेषात् । यदि च ग्रन्थव्यवहारविषयत्वम् तदा व्यवहारस्य लौकिकस्योपादाने तृणादी व्यभिचारात् , अलौकिकस्य चोपादाने बाधात , दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्याच्च । अथ क्रय-पितृमरण-प्रतिग्रहादिजन्यं स्वत्वं धन-वस्त्रादौ पर्याय विशेषरूपं विक्रयादिविनाश्यमवश्यमभ्युपेयम्, अन्यथा स्व-परविभागाभावे स्तेयाऽस्तेयादिव्यवस्थोसीदेत । न च स्वमूर्छाविषयत्वमेव स्वस्वम्, परकीयेऽपि स्वमुच्छाविषये दीयमाने प्रत्यवायाप्रसङ्गात् । न च क्रयाद्युपायविषयत्वं तत् , क्रयादीनामिच्छाविशेषरूपतया क्रीतादौ तद्विषयत्वसंभवेऽपि पितृमरणादेनिर्विषयरवेन पैतृकादौ तदनुपयत्तः, क्रयादेः स्वत्वगर्भवाच । न च शास्त्राऽनिषिद्ध [ वस्त्रादि में ग्रन्थत्वसाधक अनुमान का भंग ] जैन मुनियों द्वारा वस्त्र आदि के धारण का अनौचित्य बताने के लिये दिगम्बर जैन इस अनुमान का प्रयोग करते हैं कि "वस्त्र आदि ग्रन्थ है, क्योंकि वह मूर्छा=आसक्ति का कारण है, जैसे सूवर्ण प्रावि ।" व्याख्याकार इस अनुमान का प्रतिवाद करते हैं-उनका कहना है कि यह अनुमान दोषस्तरेक्योंकि अम्पत्वरूप साध्य का निर्दोष-निवचन नहीं हो सकता. जैसे अन्यत्व को यदि मुच्छहितत्वरूप माना जायगा तो हेतु और साध्य में कोई प्रन्तर न होने से सिर साधन अथवा स्वरूप असिद्धि वोष होगा। यदि उसे 'वस्त्रादि ग्रन्थ है। इस व्यवहार के प्राधार पर अन्यन्यवहार का विषयस्वरूप माना जायगा-तो यह ठीक न होगा, क्योंकि 'ग्रन्थपद के लौकिव्यवहार विषयत्व' को प्रन्थत्व मानने पर तृण आदि में व्यभिचार होगा क्योंकि तृण आदि मूच्र्छा का विषय होने पर भी ग्रम्पपद के लौकिक व्यवहार का विषय नहीं है । 'ग्रन्थपन के प्रलौकिक व्यवहार विषयत्व' को भी ग्रन्थत्व नहीं माना जा सकता क्योंकि शास्त्र में वस्त्र आदि का ग्रन्थ के रूप में अभिधान न होने से उसमें 'ग्रन्थपद के अलौकिक व्यवहारविषयत्वरूप' ग्रन्थत्वात्मक साध्य का बाध है। साथ ही यह भी दोष है कि सुवर्ण आदि का भी शास्त्रों में प्रन्यात्मना वर्णन न होने से दृष्टान्त में साध्य का अभाव होने के कारण हेतु में साध्य व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता । [ स्वत्वपर्याय से वस्त्रादि में परिग्रह की आपत्ति-दिगम्बर ] श्वेताम्बर जैन मुनियों द्वारा वस्त्र आदि के किये जाते पारण के विरोध में दिगम्बर जैनों द्वारा एक यह युक्ति दी जाती है कि वस्त्र आदि के धारण से अपरिग्रह व्रत की हानि होतो है क्योंकि वस्त्रादि के धारणार्थ जैन मुनि को वस्त्रादि का परिग्रह करना प्रावश्यक होता है । अन्यथा, वस्त्र आदि में अपना स्वत्व हये बिना उसका धारण सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि अन्य व्यक्ति की वस्तु का सेवन मुनि के लिये वय है । कहने का प्राशय यह है कि धन, वस्त्र प्रादि में मनुष्य का जो स्वरय होता है, वह उन वस्तुवों का एक विशेष पर्याय है, जो क्रय, पितृमरण, प्रतिग्रह मावि से उत्पन्न होता है और विक्रय आदि से नष्ट होता है, इस स्वत्वपर्याय के द्वारा हो स्वकीय, परकीय का विभाग
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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