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________________ १२६ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २६ पचयाभावात् तस्य तमाशनियतनाशप्रतियोगित्वाऽभावात् फलविशेषौपयिकोत्कर्षस्य शरीराधुक्तरसात्, अन्यथाविव। न प चरित्रस्य प्रतिज्ञाविपयीकृत कालनाशनाश्यत्वात् कथं यावज्जीवतावधिक प्रतिज्ञाविषयस्य तस्य मुक्तावनुवृत्तिः ? इति शङ्कनीयम् परभवानुबन्ध्यविरतिपरिणामादेव चारित्रनाशसंभवे तत्सहभूतस्य प्रतिज्ञाविषयीकृतकालनाशस्यान्यथासिद्धत्वेन तन्नाशकत्वायोगात् ; अन्यथा सम्यक्त्वप्रतिज्ञाविषयीभूतकालनाशात् परभवे सम्यक्त्वस्याप्यनुवृत्तिर्न स्थात् । 'सम्यक्त्वाभिव्यञ्जकस्याचारविशेषस्यैवासावसति प्रतिबन्धे कालः प्रतिज्ञायत' इति चेत् १ तर्हि चारित्राभिव्यञ्जकस्याप्याचारविशेषस्यैव कालः प्रतिज्ञायत इति तुल्यम् । देवादिभये स्वाभाव्यात् तत्सामग्री विघटनाच्च न तदनुवृत्तिः, मोक्षे तु क्षायिकत्वेन तत्सामग्री विघटनाऽयोगादेव तदनुवृत्तिरिति विशेष इति । } 1 न च कर्मक्षपणफलाभावाद् मुक्तौ चारित्राभाव इति युक्तम एवं सति ज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् । 'व्यवहारतो घटमुत्पाद्य स्थितस्य दण्डस्येव निश्चयतस्तु हेतुफलभावापन्त्रपूर्वापरक्षणश्रेणीभूतस्य तथातथा परिणतस्वभावसमवस्थानफलो परतस्य वा न निष्फलत्वमिति समावानस्याप्युभयत्र तुल्यत्वात् । सादिसान्तत्वं चैतन्मते नास्त्येव दानादिलब्धि चारित्राणाम् । उक्तं च विशेषावश्यकवृत्तावपि - " अन्ये तु दानादिलब्धिपञ्चकं चारित्रं च सिद्धस्याऽपी की निष्पत्ति होती है वह शरीरप्रयुक्त नहीं होता, यदि उसे भी शरीरप्रयुक्त माना जाय तो संसारी श्रात्मा में भी उक्त उत्कर्ष की आपत्ति होगी। यदि यह शङ्का की जाय कि जिस कालतक ( मृत्युकाल तक ) चारित्र पालन को प्रतिज्ञा होती है उस काल के नाश से चारित्र का नाश होना अनिवार्य है अतः याबद्जीवन पालनीय रूप प्रतिज्ञात चारित्र की जीवनोत्तर मोक्षकाल में अनुवृत्ति कैसे हो सकती है ?' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वास्तव में तो परभव ( जन्मान्तर) के अनुबन्धी अविरति परिणाम से ही चारित्र का नाश होने वाला है अतः उसके साथ होने वाला प्रतिज्ञाकाल का नाश चारित्रनाश के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाने से चारित्रनाश का जनक हो नहीं हो सकता। यदि प्रतिज्ञातकाल के नाश से चारित्र का नाश माना जायगा तो सम्यक्त्वोच्चारण के काल में सम्यक्त्व के लिये ( मृत्युपर्यन्स) प्रतिज्ञातकाल के नाश से परभय में सम्यक्त्व का अनुवर्तन भी न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि 'सभ्यवत्य ग्रहण करते समय प्रतिबन्धक के प्रभाव में सम्यक्त्व के व्यञ्जक श्राचारविशेष के लिये ही काल की प्रतिज्ञा की जाती है, सम्यक्त्व के काल की प्रतिज्ञा नहीं की आती, अतः उक्त दोष नहीं हो सकता तो यह बात चारित्र के सम्बन्ध में भी समान है, क्योंकि उसके सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि चारित्र के अभिव्यञ्जक आधारविशेष के लिये ही काल की प्रतिज्ञा की जाती है, चारित्र के काल की प्रतिज्ञा नहीं को जाती । देवाविभाव में भव के स्वभाव के कारण और चारित्र को सामग्री का विघटन होने के कारण चारित्र का अनुवर्तन नहीं होता यह ठीक है किन्तु मोक्ष क्षायिक होने से चारित्रसामग्री का विघटन न होने के कारण चारित्र का अनुवर्तन हो सकता है, भव की अपेक्षा मोक्ष का यही वैशिष्ट्य है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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