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________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ १२७ कछन्ति, तदावरणस्य तत्राप्यभावात , आवरणाऽभावेऽपि च तदसत्त्वे क्षीणमोहादिष्वपि तदसवग्रसङ्गात् । ततस्तन्मतेन चारित्रादीनां सिद्धयवस्थायामपि सद्भावेनाऽपर्यवसितत्वादेकस्मिन् द्वितीयभङ्ग एव क्षायिको भावः, न शेषेषु त्रिषु" इति । ___ न चैवं प्रन्थकृतस्तदा चारित्रनिवृत्तिसमर्थनमनतिप्रयोजनमिति शङ्कनीयम् , क्वचिदभिहितायाश्चारित्रस्य निवृत्तेानादिसाधारण्याः परमनिवृत्तिप्रत्ययायाः कर्मापनयस्वभावप्रत्ययस्वेनैव लक्षण्योषपादनस्य प्रयोजनत्वात् । अत एव चेशज्ञानादिनिवृत्यभावाद् नोचारित्रित्व [ फलाभाव से चारित्राभाव की सिद्धि अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-'चारित्रामाव का फल है कर्मनिवत्ति, मोक्ष दशा में कर्म और कर्मनिवृत्ति, दोनों के न होने से फल का असंभव है, अत: उस समय चारित्र का कोई फल न होने से धारित्र का अभाव मानना ही उचित है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि चारित्र का फल न होने मात्र से मोक्ष में चारित्र का प्रमाय माना जायगा तो मोक्ष में ज्ञान का भी कोई फल न होने से जानाभाव की आपत्ति होगी। वास्तव में तो घट उत्पन्न होने के बाद विद्यमान दण्ड की निष्फलता जे व्यवहारसम्मत नहीं है वसे ही मुक्ति में भी चारित्र को निष्फलता सम्मत नहीं है । एवं निश्चयनय के मत में पार्ष, कारण तथा कार्यरूप पूर्वोसरक्षणों का समूहरूप माना जाता है इसलिये मुस्तावस्था में उत्तरोत्तरक्षणवर्ती चारित्र ही पूर्वपूर्वक्षण के चारित्र का फल है । अथवा उस मत में पदार्थ तत्तद् रूप में परिणतस्वभाव से अवस्थितिरूप फल से उपरत (युक्त) होने के कारण भी चारित्र को निष्फलता निश्रयानुमत नहीं होती । तात्पर्य, मोक्ष में व्यवहारनय या निश्चयनय से ज्ञान को निष्फलता न होने से ज्ञानामाव की भी आपत्ति नहीं हो सकती-ऐसा समाधान चारित्र के पक्ष में भी सावकाश है। . इस मत में दान आदि को लब्धि और चारित्र का सादि-सान्तत्व भी सम्मत नहीं है अतः मोक्ष में चारित्र का अभाव मान्य नहीं है। "विशेषावश्यकमाध्यत्ति' में भी यह कहा गया है कि "भन्य विद्वान मुक्त पुरुष में भी दानादि पांचलब्धि और चारित्र का अस्तित्व मानते हैं क्योंकि मुक्त में चारित्र के आवरण का अभाव होता है। यदि आवरण का अभाव होने पर भी प्रावरणीय का असत्व माना जायगा तो जिनका मोहादि क्षीण हो चुका है उनमें यानी १२-१३ गुणस्थानक में भी चारित्र के प्रसत्त्व की आपत्ति होगो । प्रतः आवरण के प्रभाव में आवरणीय के ध्रुव सत्त्व माननेवाले मत में मोक्ष अवस्था में पारित्र प्रादि के भी अस्तित्व की सिद्धि होने से द्वितीयभङ्ग मात्र में यानी सावि-अनन्तभंग में ही क्षायिकभाव सिद्ध होगा, शेष तीन भङ्गों में अर्थात् सादिसान्तादि तीन भंगो में वह नहीं सिद्ध होगा।" [ चारित्र और ज्ञान में बैलक्षण्य का उपपादन ] यदि यह शङ्का को जाय कि-'उक्त रीति से मोक्षदशा में चारित्र का अस्तित्व मानने पर अन्यकार (भाष्यकार) के द्वारा चारिश्रनिवृत्ति के समर्थन का कोई प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ (भाज्यप्रन्थ में) चारित्र भौर ज्ञान में बैलक्षण्य का उपपादन ही चारित्र.
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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