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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० २६
नोअचारित्रित्ववद् नोज्ञा नित्व - नोअज्ञानित्वादिकं तत्र न व्यवहियते कर्मापगमनस्वभावेन चारित्रदेशाभाववत् प्रकाशादिस्वभावेन ज्ञानादिदेशाभावाऽयोगात् । न च ज्ञानस्यापि कर्मापनयनस्वभावत्वेन निवृत्तिरस्त्येवेति वाक्यम्; प्रकाशानाश्र व व्यापारभेदन येनोक्तव्यवहाराऽविरोधात् ।
"नोचारित्री० ' इत्यत्र क्रियारूपदेशस्यैव निषेधः" इत्यन्ये । अपारभविकत्वमपि तस्य क्रियारूपस्यैवोक्तम्, 'मोचों न भवः' इत्यभिप्रायाद् वा, मोक्षे तत्कृतफलोपकाराभावादवग्दशावदनुपयोगाद् वा । अवोचाम च - [ अ०म० प० १३४ ]
"जं पु तं इहभदियं तं किरियारूवमेव णायव्वं ।
अहवा भवो ण मोक्खो णो तम्मि भषे हिअं अहवा || १ || "
निवृत्ति के समर्थन का प्रयोजन है। कहने का आशय यह है कि चारित्र कर्मनिवृति का साधन है, साध्य साधन में कथचिद् अभेद होने से चारित्र कर्मनिवृत्तिरूप होता है अतः कर्मनिवृत्तित्वरूप से चारित्र को निवृत्ति होती है किन्तु अपने निजस्वरूप से निवृति नहीं होती । किन्तु ज्ञान की यह स्थिति नहीं है क्योंकि ज्ञान का फल है परमनिवृत्ति और वह निवर्तमान नहीं होती अतः ज्ञान को परमनिवृतित्वरूप से भी निवृत्ति नहीं होती । ज्ञान आदि को निवृत्ति न होने से हो सिद्ध आत्मा में 'नोचारित्री tuerrot' के समान 'नोज्ञानी तथा नोअज्ञानी' का व्यवहार नहीं होता क्योंकि कर्मनिवृत्तिरूप अपने कार्य के स्वभाव से चारित्र का जैसे अंशत: अभाव होता है उसप्रकार प्रकाशादिरूप अपने कार्य के स्वभाव से ज्ञानादि का अंशतः अभाव नहीं होता । यवि यह कहा जाय कि 'कर्मनिवृत्ति से चारित्र का कार्य है और उसके तबभिन्न स्वभाव से चारित्र की निवसि होती है उसीप्रकार कर्मनिवृति ज्ञान का भी कार्य है अत: उसके तदभिन्नस्वभाव से ज्ञान की भी निवृत्ति होती ही है। अतः चारित्र और ज्ञान के सम्बन्ध में उक्त प्रकार से व्यवहार और प्रव्यवहार का औचित्य नहीं हो सकता' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रकाश और अनाथवरूप व्यापार का भेद होने से उक्तब्यवहार में कोई विरोध नहीं है। कहने का बाशय यह है कि कर्म की निवृत्ति में शान प्रकाशापेक्ष है और चारित्र अनाश्रवापेक्ष है। अतः अनाश्रवापेक्ष कर्मनिवृत्ति स्वभाव से चारित्र को निवृत्ति होने से सिद्ध आत्मा में 'नोचारित्र' और 'नोप्रचारित्री' का व्यवहार हो सकता है किन्तु प्रकाशापेक्ष फर्मनिवृति स्वभाव से ज्ञान की निवृत्ति न होने के कारण 'नोशानी' और 'नोअज्ञानी' का व्यवहार नहीं हो सकता । धन्य विद्वानों का कहना है कि नोचारित्री कहने से क्रियारूप देश का ही निषेध होता है चारित्र के समग्ररूप का निषेध नहीं होता । चारित्र को जो परभव से असम्बद्ध कहा गया है वह afts के क्रियारूपवेश के सम्बन्ध में ही है । अथवा मोक्ष यह भवरूप नहीं है इस अभिप्राय से अथवा मोक्ष में चारित्र का कोई फलात्मक उपकार न होने से किंवा मोक्ष के पूर्वकाल के समान मोक्षकाल में उसका उपयोग न होने से उसे परभव से असम्बद्ध कहा गया है। यह बात अध्यात्ममतपरीक्षा
१. यत् पुनस्तदिभविक तत् क्रियारूपमेव ज्ञातव्यम् । अथवा भवो न मोक्षो नो सस्मिन् भवे हितमथवा ॥ १॥