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________________ ¿ स्वा० क० टीका एवं हिन्दोविवेचन ] [ १२९ एवं च स्वाभाविकात्मलक्षणत्वादप्यनन्तज्ञानवदनन्तचारित्रं सिद्धानां निर्वाधमेव, क्षायोपशमिकतपः प्रभृतिलक्षणानां तदाऽमवदेशी वकिल । यत्तु प्रज्ञप्तौ चारित्रात्मानः सर्व स्तोकत्वमुक्तम्, तत्र चारित्रं क्रियारूपमेव विवक्षितम्, अन्यथा कोटिसहस्रपृथक्त्वसंख्योपादानं कथम् भावचारित्रस्यान्येष्वपि संभवात् १, ""जस्सचरिचाया तस्य जोगाया नियमा" इति वाचनान्तरे चारित्रस्य प्रत्युपेत्तणादिव्यापाररूपस्य विवक्षावश्यकत्वाच । ननु यदि सिद्धानां चारित्रमिष्यते तदा ध्यानमप्येष्टव्यम्, समुच्छिमक्रियानिवृत्तिरूपशुक्लभेदस्य मुक्तायनुवृत्तेः सुवचत्वात, 'विद्यमानकरणनिरोधपर्यन्तत्वाद् ध्यानव्यवहारस्य तत्पर्यन्त एव ध्यानसद्भावः चेत्, तर्हि चारित्रसद्भावोऽपि तत्पर्यन्त एवास्तु, तत्पर्यन्तमेव चारित्रव्यवहारादिति चेत् १ न, चारित्रावस्थाविशेषरूपस्य ध्यानस्य तथाऽभावेऽपि चरित्रस्यापायात् । न हि श्यामत्वादिस्वावस्थाभावेऽपि 'घटो नास्ति' इति वक्तु ं शक्यते । 'स्वभावसमवस्थानरूपं ध्यानमपि मुक्तावक्षतम्' इत्यपर इति । अधिकं परीक्षायाम् । को एक गाथा में इसप्रकार स्पष्ट की गई है कि 'चारित्र को जो केवल इहभविक इस भवमात्र से सम्बद्ध माना जाता है यह चारित्र के क्रियात्मकरूप से ही सम्बद्ध है। अथवा मोक्ष भवरूप नहीं है किया उसमें चारित्र का कोई प्रयोजन नहीं है - इस अभिप्राय पर आश्रित है। इसप्रकार आत्मा का स्वाभाविक रूप होने से सिद्ध आत्माओं में अनन्तज्ञान के समान अनन्तचारित्र भी निर्वाषसिद्ध है, पद्यपि सिद्ध आत्माओं में क्षायोपशमिक मावान्तगंत तप आदि लक्षणों का अनुवर्तन नहीं होता तथापि क्षायिक भावान्तर्गत तप प्रादि लक्षणों का अनुवर्तन माना जा सकता है । [ सर्वाल्पसंख्याबोधक वचन क्रियात्मक चारित्र के लिये ] व्याख्या प्रशति शास्त्र में चारित्रीआत्माओं को जो सर्व अल्प कहा गया है वह क्रियारूप चारित्र की दृष्टि से कहा गया है क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो उसमें कोटिसहस्रपथ (२००० से १००० कोड) संख्या का कथन असंगत होगा, क्योंकि भावचारित्र तो प्रत्यों में (अन्य में भी विद्यमान है। सदुपरांत 'को चारित्रात्मा होता है वह योगात्मा भी होता है, यह नियम है।' इस आशय के बोधक प्रत्यबाधना में तो प्रत्युपेक्षण-पडिलेहण आदि व्यापाररूप वारित्र को farer fha fair aलेगा नहीं। यदि यह शङ्का हो कि "सिद्ध आत्मा में चारित्र का अस्तित्व मानने पर ध्यान का भी अस्तित्व मानना होगा क्योंकि समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्तिरूप चतुर्थ शुक्लध्यान का अनुवर्तन मोक्षकाल में भी सुखच हो सकता है। यदि कहें कि 'ध्यानव्यवहार विद्यमान करणों के निरोषतक ही सीमित होता है अतः वहीं तक यदि ध्यान का अस्तित्व माना जायगा तो चारित्र का भी अस्तित्व वहीं तक मानना उचित होगा, क्योंकि चारित्र का व्यवहार भी वहीं तक होता है, प्रतः सिद्ध आत्मा में चारित्र मानने पर उसी के समान ध्यान को भी द्वापत्ति अनिवार्य है" - तो यह १. यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमात् ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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