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[ शास्त्रमा स्त. ६ श्लो० २७
इदं तु ध्येयम्-सिद्धानां चारित्राभावमतेऽयि प्रकृते नानुपपत्तिः, ज्ञानयोगाधिकारात ज्ञाननयप्राधान्येन ज्ञानचास्त्रियोरभेदाश्रयणात ; ज्ञानावस्थारूपस्यैव स्थैर्याख्यचारित्रपरिणामस्याऽक्षयत्वोपपादनात् । एतदुपपादनार्थमेव शुद्धनयाभिप्रायक'नोचरित्रित्व-नोअचरित्रित्व'वचनानुसरणादिति गम्भीरधिया परिभावनीयम् ।। २६ ॥ फलितमाहमूलम्-ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग्व्यवस्थितम्।
तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ॥ २७ ॥ अतः उक्तन्यापात् , 'ज्ञानयोगाद् मुक्तिः' इति एतदुपन्यस्तम् सम्यक प्रमाणाऽविरोधेन व्यवस्थितम् । ननु कथं सम्पगियं व्यवस्था, "ज्ञान-क्रियाभ्यां मुक्तिः" इति तन्त्रव्यवस्थानात ? अत आह-तन्त्रान्तरानुरोधेन च-वेदान्तवादिमतानुरोधेन च इत्यम्-उक्तरीत्या, गीतम् उक्तम् न दोषकृतम्न स्वतन्त्रक्षतिदोषावहम् , अनेकनयमये स्वतन्त्रं यथाप्रयोजनमेकनयप्राधान्यादरस्याप्यदुष्टत्वादिति भावः। ठीक नहीं है क्योंकि ध्यान चारित्र की एक विशेष अवस्था है, अत: उस अवस्था के अभाव में भी चारित्रका अस्तित्व हो सकता है। अवस्थारूप ध्यान के प्रभाव से चारित्र का अमाव ठीक उसी प्रकार नहीं माना जा सकता जैसे घट को श्यामत्व प्रादि की अवस्था के अभाव में भी घट का प्रभाव नहीं होता । अन्य विद्वानों का कहना है कि अपने स्वभाव से आरमा का अवस्यानरूप ध्यान भी मुक्ति प्रवस्या में अक्षुण्ण रहता है। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी अध्यात्ममतपरीक्षा में प्राप्त की जा सकती है।
ज्ञानयोग से मुक्ति- इस प्रकरण में यह जातव्य है कि सिद्ध आत्मा में चारित्र का प्रभाव मानने पर भी वर्तमान सन्दर्भ में कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह सन्दर्भ मुख्यरूप से ज्ञानयोग के सम्बन्ध में है, शान नय की प्रधानता से ज्ञान और चारित्र में अमेव होता है, ज्ञान को अवस्थारूप स्थेयनामक चारित्र परिणाम है उसी की अनश्वरता का उपपाचन यही करना अभिप्रेत है और उसके उपपादन के लिये ही शुद्ध नय के अभिप्राय से सिद्ध आत्मा को 'नो चारित्री' 'नो अबारित्रो' रूप में व्यवहृत किया जाता है-यह विषय गम्भीर बुद्धि से विमर्श योग्य है ।। २६ ।।
[ज्ञानयोग से मुक्ति यह बात वेदान्तमत की अपेक्षा से ] २७वों कारिका में पूरे स्तबक में किये गए विचार का फलितार्य बताया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-उक्त न्याय से 'ज्ञानयोग से मुक्ति होती है' यह पक्ष प्रमाणविरुद्ध न होने से समोचोन रूप से समर्पित हो जाता है । यद्यपि उक्त पक्ष के समर्थन को समीचीन कहना आपाततः असंगत प्रतीत होता है क्योंकि उसमें शान और क्रिया दोनों द्वारा मुक्ति होती हैइस पक्ष के प्रतिपादक जनशास्त्र का विरोध होता है, तथापि विचार करने पर शास्त्रविरोष की प्रसक्ति न होने से उक्त पक्ष के समर्थन को समीचीन कहने में कोई बाधा नहीं है। यह तथ्य कारिका के उत्तरार्ध में यह कहते हुये प्रतिपादित किया गया है कि शास्त्रान्तर-वेदान्तशास्त्र के अभिमत के