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स्या० क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
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योगाचार्यमतानुरोधे पुनरिच्छा-शास्त्र-सामर्थ्ययोगा इष्यन्ते। तत्र ज्ञातागमस्यापि प्रमादिनः कालादिवैकल्येन चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठानमिच्छाप्राधान्यादिच्छायोगः । यथाशक्ति तीव्रश्रद्धया कालाधवैकल्येन तदनुष्ठानं च यथाशास्त्रमाचारात् शास्त्रयोगः | शास्त्रदर्शितोपाये शास्त्रदर्शितदिशाऽधिकतरवीर्यमुल्लासयतो मार्गानुसारिप्रकृष्टोहरूपस्वसंवेदनेन जाताधिक विवेकस्यानुष्ठानं सामर्थ्य योगः।
न हि शास्त्रादेव मोचोपायः कात्स्न्यनावगम्यते, तीम्ररुचेः श्रवणमात्रादेव मोक्षोपायलामे योगाभ्यासवैयर्थ्यप्रसङ्गात् ; उपायविशेषलाभार्थमेव तत्परिशीलनस्य सप्रयोजनत्वात् । न घायमझातो लभ्यते । न च प्रत्यात्मशृङ्गाहिकया तबोधनाय शास्त्रं व्याप्रियते । न चैवमत्र शास्त्रवैयथ्यम् दिग्दर्शकस्यात् , इति सिद्धमस्य शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वम् । अनुसार उक्त पक्ष का किया गया समर्थन जनशास्त्रविरोधप्रसक्तिरूपदोष का आपायक नहीं है क्योंकि जनशास्त्र अनेक नयों से घटित है. अतःप्रयोजनानसार किसी एक नय को प्रधानता प्रदान करने में कोई दोष नहीं है।
[इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्ययोग ] योगाचार्य के प्रभिप्राय के अनुसार इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्य योग ये सोन योग मोक्षसाधन के रूप में अमीष्ट हैं। जिस पुरुष को आगमशास्त्र का ज्ञान होता है वह भी अनुष्ठान योग्य काल आदि की सापेक्षता के बिना ही प्रमादी होकर चैत्यवन्धन आदि का अनुष्ठान करता है। इच्छानुसारिता ही यहाँ प्रधान होने से इसे इच्छायोग कहा गया है ।
अनुष्ठान के लिये उचित काल प्रादि को सापेक्ष रह कर शास्त्र में तीन श्रद्धा के कारण शास्त्रानुसार जो यथाशक्ति मोक्षोपाय का अनुष्ठान किया जाता है उसमें शास्त्रोक्त आचार को प्रधामता होने से उसे शास्त्रयोग शब्द से मोक्ष का साधन कहा जाता है ।
मोक्षार्थी जब शास्त्र में वणित मोक्षोपाय को स्वायत्त करने हेतु शास्त्रसूचित दिशा में अधिकतर उत्साहका अवलम्बन करता है और शास्त्रोक्त मार्ग के अनुसार प्रकृष्ट ऊह रूप स्वसंवेदन द्वारा अतिशय विवेक से सम्पन्न होकर मोक्षोपाय का अनुष्ठान करता है तब वह मोक्षोपाय का समर्थ प्रतष्ठाता होता है। उसका यह अनुष्ठान सामर्थ्ययोग शब्द से मोक्ष का साधन कहा जाता है।
[सामर्थ्ययोग के बिना केवल शास्त्रमोध अपूर्ण ] मोक्षोपाय का पूर्ण ज्ञान केवल शास्त्र से ही नहीं होता क्योंकि तीवरुचिसम्पन्न व्यक्ति को सीर्फ शास्त्र के श्रवणमात्र से ही मोक्षोपाय का लाभ हो जाने पर योगाभ्यास व्यर्थ होने की आपत्ति होगी । आशय यह है कि मोक्ष के उपायविशेष को आत्मसात करने के लिये ही योगाभ्यास की सार्थकता होती है, प्रतः यवि शास्त्र से ही मोक्षोपाय को पूर्ण अवगति हो जायगी तो योगाभ्यास का कोई प्रयोजन नहीं रह जायेगा।