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________________ १३२ 1 [ शास्त्रवास्ति श्लो० २७ स चायं द्विविधः-धर्मसंन्यासः, योगसंन्यासश्च । तत्र धर्मसंन्यासस्तात्त्विका पपकश्रेणियोगिनो द्वितीयाऽपूर्वकरणे भवति, क्षायोपशमिकानां क्षान्त्यादिधर्माणां तदा निवृत्तः, क्षायिकाणामेव विशुद्धानां प्रादुर्भावात् । अतालिकम्तु प्रव्रज्याकालेऽपि भवति सापद्यप्रवृतिलक्षणधर्म(सं)न्यासादिति समयविदः । द्वितीयस्त्वायोज्यकरणेन योगनिरोधाश्च शैलेश्या कायादिकर्मरूपाणां योगाना (सं)न्यासात् । अयं खल्वयोगोऽपि मोक्षयोजनात् परमो योग उच्यत इति । ___तदाहुः--[ योग० ६० स० श्लो० ३-११] कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः । विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥३॥ शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन पचसा विकलस्तथा ॥ ४॥ शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शकन्युरोकाद् विशेषेण सामाख्योऽयमुत्तमः ॥ ५॥ सिद्धयाख्यपदसंप्राप्तिहेतुभेदा न तच्चतः । शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथेवेह योगिभिः ॥ ६॥ सर्वथा तत्परिच्छेदात् साक्षात्कारित्वयोगतः। तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्धस्तदा सिद्धिपदाप्तितः ॥ ७॥ योगाभ्यास से प्राध्य मोक्षोपाय भी अज्ञात होने पर उपलब्ध नहीं होता क्योंकि अज्ञात के लाभ के लिये कोई प्रयत्न शक्य नहीं होता। शास्त्र मोक्षोपाय का पद्यपि शापक होता है किन्तु शगप्राहिका प्रणाली से अर्थात प्रालिस्विक-प्रतिव्यक्तिरूप से सबको उसका बोष नहीं कराता । पर इतने से हो मोक्षोपाय के प्रतिपादन के सम्बन्ध में शास्त्र को निरपंकता भी नहीं हो सकती क्योंकि मोक्षोपाय का दिग्दर्शन शास्त्र से ही होता है ! इसप्रकार यह सिस है कि मोक्षोपाय समग्ररूप से शास्त्र नहीं है किन्तु उस से भी परे है। 1 [धर्मसंन्यास और योगसंन्यास ] सामर्थ्ययोग रूप मोक्षोपाय के दो भेद हैं-धर्मसंन्यास और योगसंन्यास । तात्त्विक धर्मसंन्यास अपकश्रेणी के आरोहक को द्वितीय अपूर्षकरण में यानी आठवे गुणस्थानक में होता है, क्योंकि उसमें क्षमा आदि क्षायोपशमिक धर्मों को निवृत्ति होकर विशुद्ध क्षायिक आदि धर्मों का प्रादुर्भावप्रारम्भ हो जाता है । अतास्विकधर्मसंन्यास तो प्रवज्या-संन्यासग्रहणकाल में भी होता है क्योंकि उस समय सावध= सबोष-प्रवृत्ति रूप धर्म का त्याग हो जाता है। पोगसंन्यास रूप सामथ्ययोग आयोज्यकरण करके योगमिरोष करने के बाद शैलेशी अवस्था में १४ वे गुणस्थानक में कार्य मावि से साध्य क्रियाप्रवृत्तिरूप समो योगों के त्याग से सम्पन्न होता है, यह योगसंन्यास कायादि योग से रहित होने पर भी झटिति मोक्ष का योग-सम्बन्ध कराने से परमयोग कहा जाता है। [ योगदृष्टिसमुच्चय ग्रन्थ में इच्छादि तीन योग] उक्त विषय को श्रीहरिभद्रसूरिमहाराज ने इस रूप में कहा है जो कोई भी धर्मयोग साधने को तीन अभिलाषावाला हो, साथ में उस योगसंबंधि आगम का उसने श्रवण किया हो, और ज्ञाता भी बना हो, फिर भी जो (निद्रा-विकथादि) प्रमावाला हो। उसका विकल धर्मानुष्ठान इच्छायोग कहा जाता है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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