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स्या
टोका एवं हिन्दीविवेचन ]
[१३३
न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः । सामर्थ्य योगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाघनम् ।। ८ ।। द्विधाऽयं धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंशितः । क्षायोपशमिझा धर्मा योगाः कायादिकर्म तु ॥६॥ द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्ताविको भवेत् । आयोज्यकरणावं द्वितीय इति तद्विदः ॥ १० ॥ अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन सरसंन्यासलक्षणः ॥११॥” इति । ततो ज्ञान-क्रियायोगयोरुभयोरप्युपपत्तिः स्व-तन्त्र इति सर्वमवदाततरम् ।। २७ ।।
यः साक्षात्कृतमोक्षसाधनविधिस्तीवं तपस्तप्तगन्, यःकमाण्यपनीतवान् परिणमन्संज्ञानयोगाशयः । नित्यज्ञान-चरित्र-दर्शन-सुखं मोक्षं च यो लब्धवान् , अस्माकं शरणं स एव भगवान स्वप्नेऽथवा जागरे ॥१॥
जो पुरुष शास्त्र में (उत्कट) श्रद्धावान्-यथाशक्ति प्रमावहीन, व तोच बोध से सम्पन्न होता है उसका कालादि से अधिकल जो धर्मानुष्ठान होता है उसे शास्त्रयोग माना जाता है ।॥४॥
जिस पुरुष को; शास्त्र र मोकोपाय का दर्शन-अधबोध प्राप्त है, शक्ति के विशेष उद्रेक से शास्त्र से अगोचर विषय में जो उसका अनुष्ठान होता है उसे सामग्रंयोग कहा जाता है, यह इच्छायोग और शास्त्रयोग से श्रेष्ठ होता है ॥५॥
सिद्धि यानी मोक्ष पद, को प्राप्ति के समग्र साधन योगियों को केवल शास्त्र से हो सम्पूर्ण और तात्त्विकरूप में प्रात नहीं होते ।।६।।
सिद्धि के उपायों का शास्त्र से ही पदि समग्ररूप से ज्ञान हो जाय तब समग्र पदार्थों के साक्षास्कार का योग हो जाने से सर्वज्ञता को सिद्धि होने द्वारा सिशिपव-मोक्षपद की प्राप्ति भी हो जाय ॥७॥ किन्तु
यतः समग्र और तास्तिकरूप से मोक्षोपाय का परिज्ञाम केवल शास्त्र से ही नहीं होता है अत एव (यह सिद्ध है कि) उसमें प्रातिमज्ञान से विशिष्ट सामर्थ्ययोग अपेक्षित है व यह वर्णनातीत होता है, यह योग ही सर्वज्ञता आदि का साधक होता है ॥ ८ ॥
यह सामर्थ्ययोग धर्मसंन्यास और योगसंन्यास भेद से दो प्रकार का होता है। (संन्यास के विषय भूत) धर्म करके यहाँ क्षायोपामिक धर्म एवं योग करफे यहाँ कायादि साध्य कर्म ग्राह्य है ।।६।।
द्वितीय प्रपूर्वकरण होने पर पहला तात्विकधर्मसंन्यास होता है एवं अयोज्यकरण के प्रनन्तर दूसरा योगसंन्यास होता है ।। १० ॥
अतः सर्व (घोग) संन्यास स्वरूप प्रयोग यह मोक्ष के साथ योग कराने वाला होने से समी योगो में श्रेष्ठयोग है ॥ १३ ॥
उक्त रीति से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि जन शास्त्र में मोक्ष साधन के रूप में ज्ञानयोग और क्रियायोग दोनों की उपपति हो सकती है ।। ५७ ।।