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[ शास्त्रदाता स्त० ९ लो० २७
यस्यासन गुरवोऽत्र जीतस्जियाः प्राज्ञा प्रकृष्टाशयाः, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । . प्रेम्णां यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः, तेन न्यायविशारदेन रचिते न्यायेऽत्र देया मतिः ॥ २ ॥
व्याख्याकारने इस स्तधक की व्याख्या का उपसंहार करते हुए इन शब्दों में भगवान् के शरण हो याचना की है कि जिसने मोक्ष साधन को विधिका साक्षात्कार किया है, मोक्षलाभ के लिये तीन तप किया है, समग्र संसारापावक कर्मों को भस्म कर डाला है, जिसका हृदय संज्ञानयोग में परिणत हो गया है और जिसने ज्ञान, चारित्र, वर्शन एवं सुखात्मक नियमोक्ष प्राप्त कर लिया है वह भगवान् निद्रा और जागरण में हमारे रक्षम है : १
यस्यासन् गुरवो
इस श्लोक का विवेचन प्रथम स्तबक में आ गया है ।
इति पण्डित श्रीपाविजयसोदर न्यायविशारद पण्डित श्रीयशो. विजयविरचितायां स्याद्वादकल्पलतानाम्यां शास्त्रबार्तासमुच्चयटीकायर्या
॥ नवमः स्तषकः ॥
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